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________________ १८६ - जैन योग एक रात तक ध्यान करते रहे । भगवान् ने कुल मिलाकर सोलह दिन-रात तक निरंतर ध्यान-प्रतिमा की साधना की। भगवान् ध्यान के समय ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् तीनों को ध्येय बनाते थे । ऊर्ध्व लोक के द्रव्यों का साक्षात् करने के लिए ये ऊर्ध्व-दिशापाती ध्यान करते थे । अधो लोक के द्रव्यों का साक्षात् करने के लिए ये अधो दिशापाती ध्यान करते थे । तिर्यक् लोक के द्रव्यों का साक्षात् करने के लिए वे तिर्यक् दिशापाती ध्यान करते थे । . वे ध्येय का परिवर्तन भी करते रहते थे। उनके मुख्य-मुख्य ध्येय थे१. ऊर्ध्वगामी, अधोगामी और तिर्यग्गामी कर्म । २. बंधन. बंधन-हेतु और बंधन-परिणाम । ३. मोक्ष, मोक्ष-हेतु और मोक्ष-सुख । ४. सिर, नाभि और पादांगुष्ठ । द्रव्य, गुण और पर्याय । नित्य और अनित्य । ७. स्थूल-संपूर्ण जगत् । ८. सूक्ष्म-परमाणु । ९. प्रज्ञा के द्वारा आत्मा का निरीक्षण | भगवान् ध्यन की मध्यावधि में भावना का अभ्यास करते थे । उनके भाव्य विषय थे१. एकत्व-जितने संपर्क हैं, वे सब सांयोगिक हैं। अंतिम सत्य यह है कि आत्मा अकेला है। २. अनित्य-संयोग का अंत वियोग में होता है | अतः सब संयोग अनित्य हैं। अशरण-अंतिम सच्चाई यह है कि व्यक्ति के अपने संस्कार ही उसे सुखी और दुःखी बनाते हैं । बुरे संस्कारों के प्रकट होने पर कोई भी उसे दुःखानुभूति से बचा नहीं सकता । भगवान् ध्यान के लिए प्रायः एकान्त स्थान का चुनाव करते थे । वे 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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