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________________ योग समाप्त होते हैं, वही योग का आदि बिन्दु है। योग का मूल स्रोत अयोग है । अयोग का अर्थ है-आत्मा । योग का अर्थ है-आत्मा के साथ संबंध की स्थापना । आत्मा के साथ संबंध स्थापित होता है, तब अयोग निष्पन्न होता है । योग माध्यम है अयोग की दिशा में जाने का । अयोग माध्य हैं योग के अवतरण का । अयोग मूल है, योग पुष्प । पुष्प की परिणति फल में होती है और फल में वे बीज होते हैं, जो अपनी परम्परा का विस्तार करते हैं । अयोग अयोग होता है। योग योग होता है । वह न जैन होता है, न बौद्ध और न पातंजल | फिर भी व्यवहार ने कुछ रेखाएं खींच दीं, योग के प्रवाह को बांध बना दिया और नाम रख दिया- जैन योग, बौद्ध योग, पातंजल योग । पर इस सत्य को न भूलें - योग योग है, फिर उसका कोई भी नाम हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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