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________________ प्रयोग और परिणाम १७५ इसमें मन लीन हो जाता है । मन को लीन करने की जितनी प्रक्रियाएं हैं, उनसे तात्कालिक लाभ होता है । इस तथ्य को ध्यान में रखकर कुंभक के द्वारा लीन मन को आत्मानुभूति की अजस्त्र धारा में प्रवाहित कर देना चाहिए । मन के उन्मूलन की यह श्रेष्ठ प्रक्रिया है । उन्मूलित मन फिर विक्षेप उत्पन्न नहीं करता । इससे अहंवृत्ति स्वयं उन्मूलित हो जाती है । शून्यता का अभ्यास - वैज्ञानिक धातु को ठंडा करता जा रहा था । जैसे ही वह परम शून्य के निकट पहुंची तो उसने पाया कि प्रतिरोध शक्ति विलुप्त हो गई है । उसके विलुप्त होने पर प्रतिक्रिया - शून्य असीम शक्ति का स्रोत प्राप्त होने की संभावना बन गई । हमारे भीतर भी प्रतिरोध शक्ति है । उसका नाम 'अहं' है । इसके रहते हुए परमशून्य तक नहीं पहुंच पाते। इसका विसर्जन होने पर हम प्रतिक्रियाहीन असीम शक्ति के स्रोत में बदल जाते हैं । इसी परिवर्तन का नाम - आत्मोदय या अस्तित्व का उदय । दैहिक स्वरूप में अस्तित्व का आरोपण, ममकार और दैहिक प्रवृत्ति का विसर्जन करने पर शून्यता सिद्ध होती है । सर्वप्रथम आप कायोत्सर्ग का अभ्यास कीजिए । श्वास को दीर्घ और मन्द कीजिए | इससे दैहिक - - शून्यता प्राप्त हो जाएगी । इसके पश्चात् वस्तुओं पर आरोपित ममत्व का विसर्जन कीजिए । इससे मानसिक-शून्यता प्राप्त होगी । फिर अस्तित्व चिन्मय, आनन्दमय और शक्तिमय स्वरूप से तादात्म्य का अनुभव कीजिए । इससे अहं का प्रत्यय विलीन हो जाएगा । अहंकार, ममकार और चंचलता के विसर्जित होने पर एक असाधारण शून्यता प्राप्त होती है । यह शून्यता मूर्च्छा या निद्रा जैसी शून्यता नहीं होती । इसमें चैतन्य की अनुभूति तीव्र हो जाती है । यह शून्याशून्य की स्थिति है । इसे निषेध की भाषा में शून्यता और विधि की भाषा में तन के चैतन्य के साथ माध्यम - विहीन संपर्क कहा जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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