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________________ १३० - जैन योग इस प्रकार श्वास-प्रेक्षा के तीन रूप बन जाते हैं१. सहज श्वास-प्रेक्षा । २. दीर्घ श्वास-प्रेक्षा । ३. समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा । श्वास-प्रेक्षा मानसिक एकाग्रता का बहुत महत्त्वपूर्ण आलंबन है । दीर्घश्वास से रक्त को बल मिलता है, शक्ति केन्द्र जागृत होते हैं, तैजसशक्ति जागृत होती है, सुषुम्ना और नाड़ी-संस्थान प्रभावित होता है । इससे भावनाओं पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है | समवृत्ति श्वास से नाड़ीसंस्थान का शोधन होता है, ज्ञान शक्ति विकसित होती है और अतीन्द्रिय ज्ञान की संभावनाओं का द्वार खुलता है | अनिमेष-प्रेक्षा मस्तिष्क के पीछे बाएं भाग की ओर छोटे-छोटे कोषों का एक समुदाय है, वे कोष बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं | उनमें अतीन्द्रियज्ञान की क्षमता है । वे सुप्त रहते हैं, इसलिए उनकी क्षमता का उपयोग नहीं होता । यदि वे जागृत किए जा सकें, सक्रिय बनाए जा सकें तो अनेक अज्ञात तथ्य ज्ञात हो सकते हैं । उन्हें जागृत करने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है ‘अनिमेष प्रेक्षा' । नासाग्र, किसी बिंदु या भित्ति को अपलक दृष्टि से देखते रहना अनिमेष प्रेक्षा है। शरीर प्रेक्षा साधना की दृष्टि से शरीर का बहुत महत्त्व है | यह आत्मा का केन्द्र है । इसी के माध्यम से चैतन्य अभिव्यक्त होता है । चैतन्य पर आए हुए आवरण को दूर करने के लिए इसे सशक्त माध्यम बनाया जा सकता है । इसीलिए गौतम ने केशी से कहा था यह शरीर नौका है । जीव नाविक है और संसार समुद्र है । इस नौका के द्वारा संसार का पार पाया जा सकता है। शरीर को समग्र दृष्टि से देखने की साधना-पद्धति बहुत महत्त्वपूर्ण है । शरीर के तीन भाग है १. अधोभाग-आंख का गड्ढा, गले का गड्ढा, मुख के बीच का भाग | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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