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________________ ११२ जैन योग मुक्त क्षण शुद्ध चैतन्य के अनुभव का क्षण है। शुद्ध चैतन्य के अनुभव द्वारा ही चैतन्य को शुद्ध (आवरण - मुक्त) किया जा सकता है । अध्यात्म के साधक का साध्य होता है चैतन्य को निरावण करना । उसका साधन है जानना - देखना | साधना काल में जो साध्य होता है, वह सिद्धिकाल में स्वभाव बन जाता है । इस तथ्य को इस भाषा में भी प्रस्तुत किया जा सकता हैउपादान को ही साधन बनाकर उसे उपलब्ध किया जा सकता है । आत्मा का स्वभाव है चैतन्य । उसमें न राग है और न द्वेष है । वह न राग से रक्त होता है और द्वेष से द्विष्ट । उसमें मोह नहीं है । वह मोह से मूढ़ नहीं होता । कर्म के संयोग से उसमें राग, द्वेष और मोह - ये सब पलते हैं । मनुष्य का चैतन्य राग, द्वेष और मोह के साथ ही सक्रिय रहता है । जागरूकता का विकास होने पर जैसे-जैसे राग-द्वेष- मुक्त क्षण का अनुभव बढ़ता है, वैसे-वैसे कषाय के बंधन शिथिल होते हैं और वीतराग भाव प्रकट होता है । शुद्ध चैतन्य का अनुभव ही वीतरागता है । यह वीतरागता सापेक्ष है । अवीतरागता के अनुभव के पश्चात् शुद्ध चैतन्य का अनुभव होता है । इसलिए उस अवस्था को वीतराग अवस्था कहा जाता है । इस अवस्था में कषाय का अंश भी विपाक में नहीं रहता । वह सर्वथा क्षीण हो जाता है अथवा सर्वथा उपशांत । जिसका कषाय उपशांत होता है वह पुनः अवीतराग हो जाता है । जिसका कषाय क्षीण हो जाता है, वह वीतराग अवस्था का अनुभव कर केवली हो जाता है । कैवल्य : आत्मोपलब्धि केवली अवस्था में ज्ञान और दर्शन निरावरण होने के कारण अनंत हो जाते हैं, मोह क्षीण होने पर वीतरागता अनन्त हो जाती है और अन्तराय के क्षीण होने पर शक्ति अनन्त हो जाती है । इस अनन्त चतुष्टयी का अनुभव ही 1 आत्मा के स्वभाव का अनुभव है । यही आत्मा साक्षात्कार या आत्मोपलब्धि है । केवली अवशिष्ट आयु का भोग कर मुक्त हो जाता है । वह मृत्यु के बंधन से मुक्त हो अमृत बन जाता है। उसके स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर भी छूट जाते हैं । वह सर्वथा अमूर्तिक हो आत्मा के सहज-स्वरूप में स्थिर हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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