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________________ साधना की भूमिकाएं - १०७ है तो उसे जो चाहिए, अनिवार्य रूप से चाहिए, उतना मात्र ही पर्याप्त है। शेष की कोई अनिवार्यता नहीं है । उसका संयम सध जाता है। उसमें संतुलन, तटस्थता और संयम-ये तीनों अवस्थाएं प्रकट होती हैं । समत्व की प्रज्ञा और बाधाएं ___ आप ऐसा न मानें कि समत्व की चेतना जागते ही सब कुछ एक साथ घटित हो जाता है । बहुत बड़े-बड़े अवरोध आते हैं । कषायों को उपशांत या क्षीण करते-करते समत्व की चेतना जागती है। किंतु सारे कषाय उपशांत या क्षीण नहीं हो जाते । उन अवशिष्ट कषायों से अवरोध उत्पन्न होते हैं और क्षीण कषायों से समत्व जागता है । अवशिष्ट कषाय अपना प्रभाव डालते हैं । वे समत्व की प्रज्ञा में अवरोध उत्पन्न करने हैं । कोई भी साधक समत्व की प्रज्ञा को प्राप्त कर ले, इसका यह अर्थ होता है कि वह समत्व की प्रज्ञा में स्थित हो गया है या स्थित हो ही जाता है, ऐसा नहीं होता । एक बार अंतर्दष्टि के जाग जाने पर. समत्व की प्रज्ञा के जाग जाने पर भी साधक को खतरों से सावधान रहना चाहिए। जिस धर्मध्यान से समत्व की यह प्रज्ञा जागृत हुई, उसे और अधिक विकसित नहीं किया गया, जिस लेश्या से समत्व की यह प्रज्ञा जागी उसे निरंतर आगे नहीं बढ़ाया गया तो खतरा है कि भीतर के ही शत्रु इतना भारी आक्रमण कर दें कि साधक को पीछे लौटने के लिए विवश होना पड़े । इसलिए निरंतर अप्रमाद, जागरूकता, अंतर्जागरूकता की स्थिति बनी रहनी चाहिए । आगे से आगे ध्यान का मार्ग विकसित रहे, शुभ लेश्याएं विकसित होती रहें-यह अपेक्षा है | समता की निष्पत्ति जब समत्व की प्रज्ञा जागती है तब अध्यात्म की दूसरी भूमिका में हमारी गति प्रारंभ हो जाती है । उस समय हम कैसे जानें कि इस व्यक्ति में समत्व जागा है या नहीं ? सामायिक हुआ है या नहीं ? इसे जानने की व्यावहारिक कसौटी भी है । वह यह है कि उस व्यक्ति में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अक्रोध,अमान, अमाया, अलोभ, अकलह आदि का अचतरण होता है । सामायिक का अर्थ है-समस्त सावद्य प्रवृत्तियों का विसर्जन, समस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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