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________________ ८४ - जैन योग हैं । हमने तूलिका ली, उसे चलाया और अक्षरों का विन्यास हो गया । यदि हम संकल्प-शक्ति का उपयोग करना जान जाएं तो आकाश के वायुमंडल से परमाणुओं को ले सकते हैं और उन्हें इच्छित आकार दे सकते हैं और जो हम लिखना चाहते हैं वह साक्षात् लिखा जा सकेगा । यह है प्रायोगिक परिणमन । यह प्रयोग से होने वाला परिणमन है । अंगुलियों के प्रयोग से परिणमन करते हैं वैसे ही संकल्प-शक्ति से भी हम परिणमन कर सकते हैं और नाना प्रकार के रूपों का निर्माण कर सकते हैं । वैक्रियलब्धि का बीज यही है । वैक्रियलब्धि के आधार पर अनेक रूपों का निर्माण होता है । भावितात्मा अनगार, चतुर्दशपूर्वी इसका प्रयोग कर सकता है । चतुर्दशपूर्वी एक घड़े से हजार घड़ों का निर्माण कर सकता है। भावितात्मा अनगार, जिसने भावनाओं का अभ्यास किया है, वह भी नाना रूपों का निर्माण कर सकता है । यह संकल्प-शक्ति का प्रयोग है, भावना का प्रयोग है । यदि भावना का अभ्यास पुष्ट हो जाए, संकल्प-शक्ति का विकास हो जाए तो विविध रूपों के निर्माण में कोई बाधा नहीं आती ! आहारक लब्धि के द्वारा एक पुतले का निर्माण करना, विचारों का संप्रेषण करना, विचारों को मंगवाना, अपना प्रतिबिंब प्रेषित करना ये सारे संकल्प-शक्ति के चमत्कार हैं । ये सारे भावना के प्रयोग हैं । भावितात्मा अनगार इन्हें कर सकता है । भावितात्मा : संवृतात्मा दो प्रकार के अनगार होते हैं-भावितात्मा अनगार और संवृतात्मा अनगार | जो संवृतात्मा होता है वह वीतरागता की दिशा में विकास करता है । वह वीतरागता की ओर बढ़ता चला जाता है । जो भावितात्मा होता है, उसमें शक्ति के प्रयोग की क्षमता का विकास होता है । वह लब्धि-संपन्न हो जाता है। इस प्रकार साधना के क्षेत्र में स्मृति का भी उपयोग है और संकल्प का भी उपयोग है । इनका एकांततः निषेध नहीं किया जा सकता । जब किसी एक बिंदु पर टिकना होता है, उसे ही देखना होता है तब कल्पना और संकल्प से बचना होगा । उन्हें रोकना होगा। किंतु जब कल्पना और संकल्प का ही उपयोग करना है तब देखना बंद करना होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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