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________________ 388 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा उसी प्रकार वह उससे अन्य का अपोह भी करता है, या अन्य का अपोह या अतद् की व्यावृत्ति करता हुआ विधि या तद् का वाचक भी होता है, क्योंकि मात्र अन्यापोह से शब्द द्वारा विवक्षित वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता है। अन्यापोह में अनवस्था-दोष आता है और कहीं न कहीं जाकर शब्द का कोई वाच्य-अर्थ मानना आवश्यक हो जाता है। केवल शब्द का विधिपरक अर्थ ही मानना भी पर्याप्त नहीं है, क्योंकि तदभिन्न की व्यावृत्ति करके ही कोई शब्द अपने वाच्य अर्थ का सम्यक ज्ञान करा सकता है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार, प्रस्तुत अध्याय में अन्यापोहवादी समीक्षा करते हए शब्द का सम्यक् वाच्यार्थ क्या हो सकता है- इसका निर्देश किया गया है। इस शोधग्रन्थ के सप्तम अध्याय में बौद्धों के निर्विकल्प-प्रत्यक्ष की अवधारणा की समीक्षा की गई है, क्योंकि बौद्ध प्रत्यक्ष को निर्विकल्प स्वीकार करते हैं। इसका कारण यह है कि उनके यहाँ जैन-दर्शन के समान 'दर्शन' अर्थात् निर्विकल्प अनुभूति का और ज्ञान अर्थात् सविकल्प वस्तु-बोध का- ऐसा द्विविध-वर्गीकरण नहीं था, इसलिए उन्होंने प्रत्यक्ष को निर्विकल्प और अनुमान को सविकल्प माना। जिस प्रकार जैन-दार्शनिक 'दर्शन' को मात्र अनुभूतिरूप तथा अनभिलाप्य मानते हैं, उसी प्रकार बौद्धों ने भी प्रत्यक्ष को निर्विकल्प और अनभिलाप्य माना है। वस्तुतः, बौद्ध-दर्शन का 'प्रत्यक्ष जैन-दर्शन का 'दर्शन' ही है। अन्तर यह है कि जहाँ जैन-दर्शन 'दर्शन को सामान्य या जाति की अनुभूतिरूप मानता है, वहीं बौद्ध-दार्शनिक उसे जाति आदि की कल्पना से भी रहित मानते हैं। बौद्ध-दार्शनिक प्रत्यक्ष को मात्र निर्विकल्प ही कहते हैं, जबकि जैन-दार्शनिक 'दर्शन' को सामान्य की अनुभूतिरूप मानते हैं, किन्तु बौद्धों के अनुसार तो सामान्य मात्र काल्पनिक है, अतः, उनके अनुसार प्रत्यक्ष मात्र निर्विकल्प अनुभूति से अन्य कुछ भी नहीं है। जैन-दार्शनिकों ने बौद्धों के प्रत्यक्ष की अवधारणा की समीक्षा इसलिए की कि यदि प्रत्यक्ष निर्विकल्प है और नाम, जाति आदि की कल्पना से रहित है, तो फिर वह निश्चयात्मक या व्यवसायात्मक नहीं होगा और जो बोध व्यवसायात्मक या निश्चयात्मक नहीं होता है, ऐसे बोध को प्रमाण की कोटि में नहीं रखा जा सकता है। बौद्धों के समक्ष कठिनाई यह भी थी कि क्षणिकवाद की मान्यता के अनुसार, सम्पूर्ण सत्ता तो क्षणिक है और क्षणिक होने के कारण जब तक उसके स्वरूप का निश्चय होगा, तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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