SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 371 हेत्वाभास नहीं है, इसलिए हेत्वाभास का असाधारण अनेकान्तिक-हेत्वाभास नामक भेद करने की आवश्यकता ही नहीं है। वस्तुतः, शब्द कथंचित-नित्य हैं। जब तक शब्द को भाषा के रूप में परिणत करके बोला नहीं जाता है, तब तक वह अश्रावणत्व-स्वभाव वाला रहता है, किन्तु वे ही शब्द जब भाषा के रूप में परिणत करके बोले जाते हैं, तो इसमें पूर्वकालीन अश्रावणत्व-स्वभाव का त्याग (व्यय) होने से और उत्तरकालीन श्रावणत्व-स्वभाव की उत्पत्ति होने से उसे कथंचित्-अनित्य भाने बिना शब्द की उत्पत्ति ही संभव नहीं होगी, अतः, अश्रावणत्व और श्रावणत्व- दोनों हेतु ध्वनिरूप पर्याय की अपेक्षा से कथंचित्-अनित्य हैं और शब्दरूप ज्ञान की अपेक्षा से कथंचित्-नित्य हैं। शब्द का स्वरूप ऐसा ही है। यदि बौद्धों के अनुसार श्रावणत्व-हेतु सर्वथा नित्यत्व ही सिद्ध होता हो, तो श्रावणत्व-हेतु की मात्र कथंचित्-नित्य नामक विपक्ष में वृत्ति होने से वह विरुद्ध-हेत्वाभास ही होगा, अनेकान्तिक-हेत्वाभास नहीं होगा। वस्तुतः, जिस हेतु से कथंचित-नित्यत्व सिद्ध होता हो, तो वह हेतु विपक्षव्यावृत्ति वाला ही होने से, जैनों के अनुसार, सम्यक-हेतु है, हेत्वाभास नहीं हैं, क्योंकि कथंचित-नित्यत्व के साथ ही उस हेतु में अन्यथानुपपत्तिरूप व्याप्ति बराबर संभव है, जिसके कारण यह हेतु अनेकान्तिक हेत्वाभास नहीं होता है, इसलिए अन्य-दार्शनिकों ने अनेकान्तिक-हेत्वाभास नामक जिस भेद का प्रतिपादन किया है, वह निरर्थक है। 83 बौद्ध-दार्शनिक 'विरुद्ध-व्यभिचारी' नामक जिस हेत्वाभास का हम प्रतिपादन करते हैं, वह इस प्रकार, है- शब्द अनित्य है, क्योंकि वह कृतक है, घट के समान। शब्द-नित्य है, क्योंकि वह श्रावणत्व-स्वभाव वाला है (ज्ञातव्य है कि स्वभाव नित्य होता है)। ये दो प्रकार के अनुमान हैं, जिसमें से प्रथम में हेतु उसी पक्ष में स्वयं की सिद्धि करता है, साथ ही उसी पक्ष में उसी साध्य के विरुद्ध ऐसे साध्य को सिद्ध करने वाला यदि दूसरा हेतु भी अव्यभिचारित्व को प्राप्त होता है, तो वह हेतु भी विरुद्ध-व्यभिचारी हेतु कहलाता है। जो हेतु साध्य की भी सिद्धि करता हो और साध्य से विरुद्ध 581 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 124 - रत्नाकरायतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 125 583 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy