SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा हेतु के त्रैरूप्य लक्षण की प्रसिद्धि मुख्यतः बौद्धों के संदर्भ में ही है । नैयायिकों के पँचरूप हेतु बौद्धों के त्रैरूप्य हेतु के विरुद्ध जैनों ने हेतु का एक ही लक्षण माना है। जैन-दर्शन के अनुसार, अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का एकमात्र लक्षण है। जैन दर्शन में सर्वप्रथम सिद्धसेन ने अपने जैन- - न्याय के प्रथम ग्रंथ न्यायावतार में अन्यथानुपपत्ति को ही हेतु का लक्षण बताया है। जैनों ने अपने अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु की सिद्धि के लिए बौद्धों के त्रैरूप्य लक्षण का खंडन किया है। सर्वप्रथम जैन- दार्शनिक पात्रस्वामी ने बौद्धों के त्रैरूप्य लक्षण हेतु के खंडन के लिए त्रिलक्षणकदर्शन नामक एक स्वतंत्र ग्रंथ ही लिखा था । यद्यपि यह ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है, किन्तु ऐसा लगता है कि उनके परवर्ती जैन-न्याय के आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में उसी ग्रन्थ का आधार लेकर बौद्धों के त्रैरूप्य लक्षण का खंडन किया होगा । जैन-दर्शन में हेतु को अन्यथानुपपन्न - लक्षण वाला बताने की परंपरा अत्यन्त प्राचीन है । जैसा हमने पूर्व में उल्लेख किया, यह परंपरा सिद्धसेन दिवाकर के न्यायावतार से प्रारंभ होती है। उसके पश्चात्, अकलंक, विद्यानंद, कुमारनंदी, माणिक्यनंदी, वादिदेवसूरि आदि ने भी इसी का अनुसरण किया। हमारे समीक्ष्य ग्रंथ रत्नाकरावतारिका में भी रत्नप्रभसूरि ने विस्तार से बौद्धों के त्रैरूप्य हेतु-लक्षण की समीक्षा की है, किन्तु इस समीक्षा के पूर्व बौद्धों के त्रैरूप्य हेतु - लक्षण का पूर्वपक्ष के रूप में स्पष्टीकरण आवश्यक है। बौद्धदर्शन में हेतु की वैरूप्यता का सर्वप्रथम प्रतिपादन दिङ्नाग ने न्याय- प्रवेश में किया है । दिङ्नाग अपनी रचना न्याय - प्रवेश में लिखते हैं कि हेतु त्रिरूप लक्षण वाला होता है। हेतु के त्रैरूप्य लक्षण कौनसे हैं, इसको स्पष्ट करते हुए वे पुनः लिखते हैं कि पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व, विपक्षासत्व- ये ही हेतु के तीन लक्षण हैं।' धर्मकीर्त्ति ने हेतुलक्षण में स्पष्ट किया है कि जिसका विशेष धर्म जानना इष्ट हो, वह अनुमेय ही हेतु कहा जाता है | 170 469 469 देखें-हेतुस्त्रिरूपः । किं पुनस्त्रैरूप्यम् ? पक्षधर्मत्वं, सपक्षेसत्त्वं विपक्षे चासत्त्वमिति । - न्यायप्रवेश पृ. 1 470 देखें – अनुमयोऽयं जिज्ञासित विशेषो धर्मी - न्यायबिन्दु 2/9 315 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy