SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 263 साध्य का स्वभाव नहीं है और उनमें कोई कार्य-कारण संबंध भी नहीं हैं, फिर भी वे कार्य की सिद्धि में उपयोगी होते हैं। इस प्रकार, जैन पूर्वचर और उत्तरचर-हेतुओं को स्वभाव हेतु और कार्य-कारण-हेतु से अलग मानकर साध्य की सिद्धि में सहायक मानते हैं।" जैनों के इस सिद्धांत की समीक्षा करते हुए बौद्ध-दार्शनिक प्रज्ञाकर गुप्त का कहना है कि पूर्वचर-हेतु और उत्तरचर-हेतु सम-समयवर्ती नहीं हैं, साथ ही व्यवहित भी हैं, अतः, वे साध्य की सिद्धि में सहायक नहीं हैं, क्योंकि उनका साध्य से अविनाभाव-संबंध ही नहीं होता है, अतः, उनको जैनों के द्वारा साध्य की सिद्धि में हेतुरूप स्वीकार करना उचित नहीं है।"2 जैन - इसके प्रत्युत्तर में, जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि रत्नाकरावतारिका में लिखते हैं कि काल का व्यवधान होने पर भी कार्य-कारण-संबंध हो सकता है, जैसे- सोने से पहले का जो ज्ञान होता है, वह सोकर उठने के बाद जाग्रत-दशा में पूर्व-संवेदन के रूप में जाना जाता है तथा सोकर उठने के बाद का ज्ञान प्रबोध कहलाता है। प्रबोध, अर्थात् जाग्रत-दशा के संवेदन में पूर्व की अनुभूति कारण है और प्रबोध उसका कार्य है। ये दोनों भिन्नकालीन हैं, फिर भी इनमें कार्य-कारणभाव-संबंध रहा हुआ है। ध्रुव तारे का अदर्शन अमंगलरूप होता है। यहाँ पर अमंगल का घटित होना ध्रुव तारे के अदर्शन का कार्य है और वही भविष्यकालीन-मरण का कारण है, अतः, यह सिद्ध होता है कि व्यवहित काल वाले दो तथ्यों के बीच कार्य-कारण-संबंध संभव है, इसलिए यह मानना उचित नहीं है कि कार्य-कारण-संबंध काल की अपेक्षा से समकालीन अथवा अव्यवहित तथ्यों में ही होता है। घड़ा बनाने की प्रक्रिया और घट की उत्पत्ति- ये दोनों भिन्न कालों में होती हैं, फिर भी इनमें कार्य-कारणभाव-संबंध है, अतः, पूर्वचर और उत्तरचर व्यवहित अर्थात भिन्नकाल में होने पर भी उनमें चाहे कार्य-कारण-भाव न भी हो, तो भी अविनाभाव-संबंध हो सकता है, अतः, जैनों का कहना यह है कि दो भिन्नकालीन तथ्यों को साध्य की सिद्धि में हेतुरूप स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आती। 377 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 472 172 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 475 373 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 475 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy