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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा बिना तर्क - ज्ञान के व्याप्ति सिद्ध नहीं होती और व्याप्ति के होने पर ही अनुमान प्रामाणिक होता है, अतः हम जैन भी तो यही कहते हैं, जिसको आपने अब मान्यता दी है। चूंकि सभी देश और काल के विषय वाला तर्क - विकल्प पूर्व में अनुभवित उपलंभ और अनुपलंभ से उत्पन्न होता है, अतः, व्याप्ति - ज्ञान में इसी तर्करूप विकल्प को ही प्रमाण मानना होगा, यथा- 'अग्नि के होने पर धुआँ होता है और 'अग्नि के नहीं होने पर धुआँ भी नहीं होता है - इस प्रकार, हमारे अनुसार पूर्व में अनुभवित उपलंभ और अनुपलंभरूप प्रत्यक्ष प्रमाण से सभी देश और सभी काल में व्याप्ति-संबंध का जो विकल्प उत्पन्न होता है, वही तर्क है और इसी तर्क प्रमाण से सभी देश और सभी काल के व्याप्ति-संबंध का ज्ञान होता है, इसलिए व्याप्ति की प्राप्ति के लिए तर्करूप विकल्प को ही प्रमाणरूप मानना चाहिए, किन्तु किसी एक नियत देश एवं काल को अनुभवित- रूप प्रत्यक्ष-प्रमाण नहीं मानना चाहिए । 3250 बौद्ध इस पर बौद्ध - दार्शनिक कहते हैं कि नहीं, ऐसा नहीं होता है। तर्करूप विकल्प - ज्ञान पूर्व में हुए प्रत्यक्ष से जो ज्ञान प्राप्त किया था, उसी पूर्व में हुए प्रत्यक्ष से अनुभवित ज्ञान को ही पुनः प्रस्तुत करता है, अर्थात् पूर्व में जो प्रत्यक्ष ज्ञान किया था, उसी का पुनः बोध होता है, किन्तु उससे अधिक कुछ नहीं होता है, अतः, प्रत्यक्ष प्रमाण को ही व्याप्ति - ज्ञान में प्रमाण मानना चाहिए। इसके लिए अलग से तर्क को प्रमाण मानना उचित नहीं है | 351 1 — जैन बौद्धों के इस तर्क की समीक्षा करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि यदि आप यही तर्क देते हैं कि पूर्व में अनुभवित प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय को ही तर्क-प्रमाण पुनः प्रस्तुत कराता है और इससे अधिक कुछ नहीं करता है और इस प्रकार, प्रत्यक्ष ज्ञान से ही व्याप्ति - ज्ञान हो जाता है, अलग से तर्क-प्रमाण की कोई आवश्यकता ही नहीं है आदि जो दलीलें आपने पेश की हैं, तो फिर तो व्याप्ति - ज्ञान होने के बाद उनसे होने वाला जो 'तस्मात् पर्वतो बह्ममान्नेव इत्यादि रूप अनुमान - ज्ञान है, उसको भी पूर्व में हुए प्रत्यक्ष ज्ञान का परिणाम मानना होगा। इस प्रकार, तो, अनुमान - ज्ञान भी महानस (रसोईघर) आदि में पूर्व में अनुभूत धूमग्राही प्रत्यक्ष ज्ञान को ही विषय करता है, इससे अधिक कुछ भी नहीं करता है, 350 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 400 351 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 400 255 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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