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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा ऐसे हम इन तीनों को भी नहीं मानते हैं, किंतु हम तो ऐसा कथन करते हैं कि यह नीलवर्ण वाला, यह पीतवर्ण वाला- ऐसे भिन्न-भिन्न परमाणु - मात्र ही हैं। यदि हम परमाणुओं का पुंज - विशेष कहेंगे, तो वहाँ पर छोटे-बड़े की कल्पना करनी पड़ेगी और प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणता को भी स्वीकार करना पड़ेगा, किन्तु हमें तो आपकी प्रत्यभिज्ञा स्वीकार्य न होने के कारण हम तो ऐसा मानते हैं कि मात्र नील-पीत आदि वर्णवाले एक-एक तथा भिन्न-भिन्न परमाणु ही तात्त्विक या यथार्थ- पदार्थ हैं तथा सभी पदार्थ कद में एक समान होने से छोटे-बड़ों का भेद ही समाप्त हो जाता है, अतः, आपकी प्रत्यभिज्ञा किसी भी रूप से सिद्ध हो नहीं सकती । 922 जैन इस पर, जैन बौद्धों पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं- अहो ! यह कैसी आश्चर्यकारी बात है कि जिस प्रकार लेनदार से पकड़ा गया निर्धन देनदार जैसे स्वयं ही अपने कहे हुए पक्ष का अपलाप करके भी भागने की चेष्टा करता है, अर्थात् जिस प्रकार कोई देनदार निर्धन होने के कारण जब-जब उसको लेनदार व्यक्ति दिखाई देता है, तब-तब वह कहता है कि मैं पाँच-पच्चीस दिन में आपके पैसे लौटा दूँगा- ऐसा वायदा करके वह भाग जाता है, किन्तु वह देनदार हकीकत में एक भी वायदा पूर्ण नहीं करता है, उसी प्रकार आप बौद्ध भी कभी तो सदृशता को, तो कभी विसदृशता को तो कभी परमाणु- प्रचयत्व - विशेष को ऐसे भिन्न-भिन्न पक्षों की स्थापना करके हमारे जैनों के सिद्धांत में दोषों का आरोपण करते हैं, किन्तु अंत में सभी पक्षों को छोड़कर आप बौद्ध भाग जाते हैं, अतः, आपका एक भी पक्ष समुचित नहीं लगता है। 1923 - पुनः, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों पर आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि आप तो एक के बाद एक नए-नए सिद्धांतों को प्रस्तुत करते गए एवं बाद में उन्हीं सिद्धांतों को नकारते भी गए। जब आपने कहा कि हम सादृश्य को मानते हैं, तो हम जैनों ने आपके द्वारा मान्य सादृश्यता का खण्डन किया, तब आपने सादृश्य को छोड़कर वैसादृश्य को मान लिया, तो हमने उसका भी खण्डन कर दिया, फिर आपने परमाणु- प्रचयत्व का सहारा लिया, तो उसको भी हमने खंडित कर दिया। इस प्रकार, आपने विभिन्न सिद्धांतों का सहारा लेकर अपने पक्ष को निर्दोष साबित करने का प्रयत्न किया, किन्तु अन्ततः आपके तर्क निर्दोष सिद्ध नहीं हो सके। अब आप यह 322 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 390 323 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 389 243 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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