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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा किए बिना यह दूसरा पक्ष तो बिल्कुल भी उचित नहीं है, अर्थात् शाखा - प्रशाखा आदि पदार्थों में वृक्ष शब्द का संकेत माने बिना ही यदि आप अनुमान करते हैं, तो ऐसा कथन (विवक्ष्य) बिलकुल उचित नहीं है, क्योंकि शाखा प्रशाखा आदि के बिना वृक्ष शब्द का कोई अर्थ ही नहीं होगा | 229 192 जैन- दार्शनिक रत्नप्रभसूरि बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि यदि मान लो कि कोई पुरुष वृक्ष की ओर संकेत करके यह बताना चाहे कि 'यह वृक्ष है, क्योंकि वृक्ष कहते ही यह समझ में आ जाता है कि शाखा - प्रशाखा, फल-फूल - पत्ते आदि से युक्त वृक्ष होता है, किन्तु यदि वही पुरुष 'वृक्ष' शब्द का प्रयोग तृण- घास आदि अन्य पदार्थों में करके यह समझाए कि यह तृण-घास, घट-पट आदि ही वृक्ष हैं, तो आपके (बौद्ध) सिद्धान्तानुसार ही तृण, घट, पट आदि पदार्थों को, जो शाखा - प्रशाखा, फल-फूल, पत्ते आदि से रहित हैं, वृक्ष मानने से तो हेतु में साध्य का अभाव होने से हेतु व्यभिचारी - दोष से ग्रस्त है और आप वृक्ष शब्द का अर्थ तृण, घास, घट, पट आदि हैं- इसको अनुमान - प्रमाण से कैसे सिद्ध कर पाओगे ? क्योंकि अनुमान तो हेतु पर निर्भर होता है। आप वृक्ष को या तृण को क्या हेतु बनाओगे ? आप किसी भी पदार्थ के लिए किसी भी शब्द का प्रयोग करके उसको अनुमान - प्रमाण बताओगे, तो उसमें साध्य का अभाव होने से व्यभिचार - दोष उत्पन्न हो जाएगा, जबकि यह निश्चित है कि शब्द में ही संकेत करने का गुण रहा हुआ है। संकेत शब्द के द्वारा किसी भी वस्तु में हो सकता है। हर शब्द का अपना एक नियत अर्थ होता है, अर्थात् शब्द का एक निश्चित संदर्भ में प्रयोग किया जाएगा, तो ही वह सार्थक होगा और यह लक्षण आगम- प्रमाण में ही है। यदि आप संकेत को स्वीकार नहीं करेंगे, तो वृक्ष शब्द का प्रयोग चाहे किसी भी तृण, घट, पट आदि पदार्थ में करने पर तृण, घट, पट आदि में तो साध्य का अभाव होगा। ऐसे तृण, घट, पट आदि-रूप विपक्ष में भी वृक्ष शब्द का उच्चारण होते हुए भी वहाँ जो हेतु बनेगा, वह हेतु विपक्ष-वृत्ति होने से व्यभिचार - दोष से ग्रस्त होगा । पागल व्यक्ति, या निद्राधीन व्यक्ति, या नशा किया हुआ व्यक्ति कुछ भी अनर्गल बकवास करता रहता है। इन व्यक्तियों के शब्दोच्चारण का कोई नियत अर्थ नहीं रहता है । यद्यपि वे शब्दोच्चारण-रूप तो हैं, तथापि उनमें अभिधेय (वाच्य - विषय) की विवक्षा नहीं है । वहाँ पर भी साध्य का अभाव 229 रत्ना रावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 620 • Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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