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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 165 तदुत्पत्ति-सिद्धान्त भी युक्तियुक्त नहीं है। शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचकभाव मानना ही उपयुक्त है। जैनों का वाच्य-वाचक-संबंध - रत्नप्रभसूरि रत्नाकरावतारिका में जैन-दर्शन के मान्य शब्द और अर्थ के वाच्य-वाचक-संबंध को लेकर सर्वप्रथम पूर्वपक्ष के रूप में इस सिद्धांत के संबंध में बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर की आपत्तियों को प्रस्तुत करते हैं। धर्मोत्तर का कथन है कि शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध भी उचित नहीं है। इस संबंध में धर्मोत्तर की प्रथम आपत्ति यह है कि यदि शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध मानते हैं, तो यह बताओ कि शब्द और अर्थ से उनका वाच्य-वाचक-संबंध अभिन्न है या भिन्न ?167 पहला विकल्प यदि शब्द और अर्थ से उनका वाच्य-वाचक-संबंध अभिन्न है, अर्थात स्वाभाविक है- ऐसा मानें, तो फिर शब्द और अर्थ से उनका वाच्य-वाचक-संबंध भी भिन्न नहीं होगा। इस प्रकार, यदि शब्द और अर्थ और उनका वाच्य-वाचक-संबंध परस्पर अभिन्न है, तो फिर उनमें कोई संबंध भी नहीं होगा। चूंकि संबंध तो दो भिन्न वस्तुओं में ही होता है, अभिन्न वस्तुओं में कोई संबंध होता ही नहीं है, अतः, इस आधार पर शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध सिद्ध नहीं होगा। अब यदि दूसरा विकल्प यह मानें कि शब्द और अर्थ से उनका वाच्य-वाचक-संबंध भिन्न है, तो ऐसा मानने पर यह प्रश्न उठता है कि वे एकान्त-भिन्न हैं या कथंचित्-भिन्न ?169 शब्द और अर्थ से उनका वाच्य-वाचक-संबंध एकान्त-भिन्न हैऐसा मानते हैं, तो फिर यह प्रश्न उठता है कि वह वाच्य-वाचक-संबंध नित्य है या अनित्य, या नित्यानित्य ? ऐसे इन तीन विकल्पों में से कोई एक विकल्प मानना होगा। 166 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 18 167 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 19 168 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 19 169 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 19 170 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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