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________________ [ २४५ ] समुच्छियं ---- (समुक्षिकाम् ) ___ पाणी छांटनेवाली । समुप्पजित्था -- देखो टि. २१, क. १ । समूसियसिरे-(समुच्छ्रितशिरः) ___ऊंचे मस्तकवाला । समेच्चा - (समेत्य) मिल करके। समोसरिए - (समवसृतः) आये सम्मजि-- (समाजिकाम् ) झाडू देनेवाली । सरभा-(शरभाः) अष्टापद । सरय - (शरत् ) कार्तिक और मार्गशीर्ष मास । सरयपुण्णिमायंदो--- (शरत् पूर्णिमाचन्द्रः ) शरद ऋतु की पूनम का चांद । सल्लइया-(शल्यकिताः ) जिनके पत्ते शुष्क होने पर सली बन गई है । सवयंसो- (सक्यस्य:) मित्र सहित । सपहलाविवं--(शपयशापितान्) ____सोनंद दी हुई। सम्बोउय -- ( सर्वऋतुक) सब ऋतुओं में । ससक्खं -(ससाक्षि) साक्षी रखके । सहदारदरिसी- (सहदार दर्शिनः) साथ में विवाह किये हुए । सहपंसुकीलियया-(सहपांशु क्रीडितकाः) धूल में साथ खेले हुए। सहावरङ्गं- (स्वभावरङ्गम् ) स्वाभाविक रंग को। सहोई -(दे०) चोरी के माल के साथ । संगारं - (संगारम् ) करार संकेत को। संघाडओ-(संघाटकः, संघा___ तकः) दो की जोडी। संचाएति - देखो टि. २०, संचाएमि -(संशकोमि) कर सकता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002742
Book TitleJinagam Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, Agam, & agam_related_other_literature
File Size9 MB
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