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________________ [ २४२) विढदणथं --- (दे० उपार्जना- वियडीसु - (वितटीयु) जंगलों र्थम् ) उपार्जन के लिये । में । [गुजराती बीड विणएज-(विनयेत् ) दूर करें। शब्द का इसीसे संबंध विणार्सेतओ-(व्यनाशयिष्यत्) मालूम होता है। 'बीड' का संबंध 'विटप'-(वृक्ष) विनाश करेगा। शब्द से मालूम होता है। विणिम्मुयमाणी - (विनिर्मुश्च वियरएसु-(विदरेषु) नदी के माना) मुक्त करती हुई । किनारे पर खुदे हुए पानी वितिगिच्छा -(विचिकित्सा ) के स्थलों में । [गूजराती संशय । 'वीरडा' शब्द का यह विदेहे - (विदेहे ) विदेह नामक मूल मालूम होता है और देश में। उसकी राजधानी कूपवाचक मारवाडी 'वेरा' मिथिला है। शब्द का भी यही मूल है। विन्नाणेमो- ( विजानीमः ) वियालचारिणो ~ (विकालजानें । चारिणः ) रात को घूमनेविप्पर -(विपराद्धः) हत वाले । हुआ । विराला - (विडालाः) विल्लेविप्पवसियस्स-(विप्रोषितस्य) विलाव । देशान्तर जाने को प्रवृति विलक्खमणो -(विलक्ष्यमनाः) करनेवाले का । लज्जित । विभवमागमेऊण -- (विभषम्- विवाडेसि - (व्यापादयसि) आगम्य ) विभव को जान मार डालता है। कर । विहरति-(विहरन्ति ) आनंद विम्हलो-(विह्वलः) विह्वल। से रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002742
Book TitleJinagam Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, Agam, & agam_related_other_literature
File Size9 MB
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