SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १९६ ] चलती है उसके घोतक थे लव शब्द है। यह मैंने पहले कहीं देखा है" ऐसे चित्तव्यापार को ईहा कहते हैं । जो इस समय दीख रहा है और जो पहले देखा है इन दोनों के साम्य वैषम्य को खोजने की तर्क कोटी को अपोह कहते हैं। इसी प्रकार उत्तरोत्तर बढती हुई निर्णय लानेवाली खोज को फम से मार्गण और गवेपण कहते हैं। २८. सन्निपुठ्धे- "संज्ञिपूर्वम्"। जैन शास्त्र में " संज्ञी" (समनस्क) और " असंज्ञी" (अमनस्क ) इस प्रकार जीव के दो भेद माने गये हैं। जिस माणी का पूर्वजन्म संज्ञी की योनि' का हो उसको 'सन्निपुग्ध' कहते हैं और उसको जो पूर्वभव का स्मरण होता है उसे भी " सनिपुत्र" कहते हैं। २९. पहारेत्थ - "प्र+अधारयिष्ट- विचार किया" 'पहारेत्य' में आया हुआ 'इत्य' प्रत्यय भूतकाल का सूचक है। मार्ग प्राकृत में ही ऐसा प्रयोग आता है। विशेष के लिए देखो टिप्पणी नं. २१ । प्रका ३०. तेणं कालेणं तेणं समपणं-'तेन कालेन, तेन समयेन -- उस काल में और उस समय में।” यहां तृतीया विभक्ति सप्तमी के अर्थ में समझना । माकृत भाषा में इस प्रकार विभक्तिओं का व्यत्यय बहुत जगह. आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002742
Book TitleJinagam Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, Agam, & agam_related_other_literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy