SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४. अपूर्व भातृ स्नेह द्वारका-विनाश के पश्चात् (केवल पहिने हुए वस्त्रों से) बलराम एवं कृष्ण खाली हाथ कौशाम्ब वन आ पहुंचे। अत्यन्त तृषातुर कृष्ण के लिए बलराम पानी की खोज में निकल गये। इधर पैर पर पैर चढ़ाकर सोये हुए कृष्ण को मृग समझकर जराकुमार ने उन पर बाण छोड़ा। कृष्ण की मृत्यु हो गई। शोक-संतप्त जराकुमार ने पांडवों की पांडु-मथुरा नगरी की ओर प्रस्थान किया। जैसे-तैसे वह पांडवों के पास पहुँचा और उन्हें कोस्तुभ चिन्ह दिखाकर द्वारका-विनाश एवं कृष्ण की मृत्यु आदि के विषय में सम्पूर्ण वृतान्त कह सुनाया। अत्यन्त शोक से व्याकुल होकर उन्होंने कृष्ण का मृत्यु-कर्म किया। और निरन्तर एक वर्ष तक कृष्ण-वियोग से तड़पते हुए उन्हें वैरागी बनकर व्रत लेने की इच्छा हुई। भगवान नेमि-प्रभु ने चार ज्ञान से युक्त धर्मघोष मुनि को पांडवों के पास भेजा और पांडवों ने जराकुमार को राज्य सौंपकर धर्मघोष मुनि से दीक्षा ग्रहण की। कालान्तर में 20 करोड़ मुनियों के साथ उन्होंने शजय पर्वत पर मोक्ष प्राप्त किया। ___ इधर, कमल-पत्र के पात्र में जल लेकर लौटते हुए दुष्ट पक्षियों के अपशुकन से चिन्तातुर बलराम, कृष्ण के पास पहुँचे। कृष्ण के उपर काली मक्खियों को भिनभिनाते देखकर बलराम ने कृष्ण के मुख उपर से वस्त्र हटाया। कृष्ण को मृत अवस्था में देखकर भंयकर क्रोध से उन्होंने सिंहनाद किया। जिससे पशु-पक्षियों सहित सम्पूर्ण जंगल कांप उठा। तत्पश्चात् बलराम उच्च स्वर में बोले-“प्राणों से भी प्रिय मेरे सोये हए भाई को जिसने भी मारा है और जो वास्तव में वीर पुरुष का पुत्र हैं तो तुरन्त मेरे समक्ष उपस्थित हो। सज्जन मनुष्य, स्त्री को, बच्चे को ऋषि को और सोये हुए (व्यक्ति) मनुष्य को कभी नहीं मारता।" ऐसा कहकर कृष्ण के हत्यारे को ढूंढते हुए बलराम वन में भटकने लगे। फिर कृष्ण के पास लौटकर उच्च स्वर में विलाप करने लगे-“ओ यादवेश ! गणनीधि ! ! तुम कहाँ हो ? ओ प्राणप्रिय ! पहले मेरे बिना तुम एक क्षण भी नहीं रह सकते थे और आज तुम मेरे साथ बोलने के लिए भी तैयार नहीं हो। इतना नाराज क्यों होते हो? यदि मैंने कोई गलती की हो तो भी इतना अधिक समय क्रोध करना उचित Rudraao ★१२★ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002740
Book TitleAnant Akash me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmadarshanvijay
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy