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________________ सुनकर शोकाग्नि से संतप्त जराकुमार रोने लगा। "हाय ! अतिथी के रूप में आये सगे भाई का आतिथ्य मैंने मृत्यु की भेंट देकर किया। अब मैं कहाँ जाऊ? मझे कहाँ शान्ति मिलेगी? अरे ! इस दष्कत्य के लिए तो नर्क की सजा भी मेरे लिये कम हैं। नर्क से भी अधिक कष्ट का अनुभव तो मैं अभी कर ही रहा हूँ। हे विधाता ! मुझ हत्यारे को आपने अभी तक जीवित क्यों रखा हैं ? मेरे प्राण ले लो। हे पृथ्वी ! इस पापी को तु अपने अन्दर समा ले। जब नेमि प्रभु ने मेरे ही हाथों बन्धु-हत्या की बात कही थी, उसी वक्त मैं मर जाता तो इस महापाप से अवश्य बच जाता। इस प्रकार वृक्ष की प्रत्येक शाखाओं को, पशुओं एवं पक्षियों को शोकमय करते हुए, स्वयं विलाप करते हुए जराकुमार को कृष्ण ने कहा बन्धु ! तुम दुःख मत करो, क्योंकि भाग्य को परिवर्तित करने की शक्ति स्वयं देवों-देवेन्द्रों और देवाधिदेवों में भी नहीं होती। अब तुम इस कौस्तुभ (बाण-तरकश) का चिन्ह लेकर हमारे प्रति त पांडवों के पास जाओ और उनसे हमारे अपराधों की क्षमा-याचना करते हुए द्वारका-दहन का सम्पूर्ण वृतान्त कह सुनाओ। तुम उल्टे पैरों से जाओ, ताकि बलराम को किसी मनुष्य के यहाँ आने का पता न चले। जाओ बंधु ! करोड़ो यादवों में से केवल तुम ही बचे हो। इस प्रकार कृष्ण द्वारा बार-बार प्रेरित किये जाने पर जराकुमार ने हिचकियाँ लेते हुए कृष्ण के पैर से तीर खींच निकाला और कौस्तुभ लेकर बार-बार कृष्ण की ओर देखते हुए, उल्टे पैर पांडवों की नगरी पांडु-मथुरा की और प्रस्थान किया। इधर बाण के प्रहार से अत्यन्त पीड़ित कृष्ण ने उत्तराभिमुख रहते हुए हाथ जोड़कर अरिहंतादि चारों की शरण स्वीकार करने के लिए सर्वप्रथम भगवान नेमिनाथ को प्रणाम किया। तत्पश्चात घास की शय्या पर लेटे हुए कृष्ण शाब-प्रद्युम्न और रुक्मिणी आदि प्रवजित हुए महात्माओं की अनुमोदना के साथ स्वदुस्कृत्य का पश्चाताप करने लगे। - इस प्रकार शुभ अध्यवसायों में स्थित श्री कृष्ण को पीड़ा के अतिरेक के साथ वायु का प्रकोप भी बढ़ने लगा और वे शुभ ध्यान से अशुभ ध्यान की ओर मुड़ गये। CCGGGC ★90* For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002740
Book TitleAnant Akash me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmadarshanvijay
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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