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________________ ८८ पद्म-पुराण शोकसे मुख मुरझाय गया, अश्रुपातकी बूद खोंसे डालती हुई । माताको देखकर हरिषेणने कहा-'हे माता! अब तक तुमने स्वप्नमात्रमें भी रुदन न किया, अब यह अमंगल कार्य क्यों करो हो।' तब माताने सर्व वृत्तांत कहा । सुनकर हरिषेणने मनमें सोची कि क्या करू? एक ओर पिता एक ओर माता। मैं संकट में पड़ा हूँ अर मैं माताके अश्रुपात देखनेको समर्थ नहीं हूं सो उदास हो घरसे निकस वनको गए तहां मिष्ट फलोंके भक्षण करते अर सरोवरों का निर्मल जल पीते निर्भय विहार किया । इनका सुन्दर रूप देख कर निर्दयी पशु भी शांत हो गए। ऐसे भव्य जीव किसको प्यारे न हों तहां वनमें भी माता का रुखन याद अवै तवइन को ऐसी बाधा उपजे कि वनकी रमणीकताका सुख भूल ज वै सो हरिषेण वनमें विहार करते शतमन्यु नामा तापसके पात्रममें गए। कैसा है आश्रम ? जीवों का ग्राश्रय है जहां। __अथान तर कालकल्प नामा राजा ऋति प्रवल जिसका वड़ा तेज अर बड़ी फौज उसने आनय र पा नगरी घेरी सो तहाँ रजा जनमेजय सो जनमेजय र कालकल्पमें युद्ध भया। आगे जनमेजयने महलमें सुरंग बना रखी थी सो मार्ग होकर जनमेजयकी माता नागमती अपनी पुत्री भदनावली सहित निकली अर शत पन्यु तपनके पाश्रमें आई । सो नागमतीकी पुत्री हरिषेण का रूप देख कर कामके कोणों से बांधी गई। कैसे हैं कामके बाण ? शरीर में विकलता ककरणहारे हैं । तब काकू और भांति देख नागमती कहती भई-हे पुत्री, तू विनयवान होकर सुन कि मुनिने पहिले ही कहा था कि यह कन्या चक्रवर्तीकी स्त्रीरत्न होयगी सो यह चक्रवती तेरे वर हैं । यह रनार अनि आसक्त भई तब तापसीन हरिपेणको निकाल दिया क्योंकि उसने विचारी कि कदाचित् इनके संसर्ग होय तो इस च तसे हमारी अाति होयगी । सो चक्रवर्ती इनके आश्रमसे और ठार गए अर तापसीको दीन जान युद्र न किया परंतु चित्तमें वह कन्या वसी रही सो इन जो भोजनमें अर शयनमें किसी प्रकार स्थिरता नहीं । जैसे भ्रामरी विद्यासे कोऊ भ्रने तैसे ये पृथ्वी में प्राण करते भए । ग्राम नगर वन उपवन लताओं के मंडप में इनको कहीं भी चैन नहीं, कमलोंके बन दावानल सम न दीखै कर चंद्रताकी किरण बज्रकी सुई समान दीखै अर केतकी बरछ की अणी समान दीखे, पुष्पोंकी सुगंध मनको न हरै, चित्तमें ऐसा चिंतवते भए जो मैं यह स्त्रीरत्न बरू तो मैं जायकर माता भी शोक संताप दूर करू। नदियोंके तट पर अर वनके ग्राम नगरमें पर्वतपर भगवानके चैन्यालय पर ऊ। यह चिंतवन करते हवे अनेक देश भ्रमो धुनंदन नगरके समीप पाए । कै। हैं हरिषेण ? महा बलवान अति तेजस्वी हैं वहां नगरके बाहिर अनेक स्त्री क्रीडाको आई हुती को एक अं न गरि समान हाथी मद भरता स्त्रियोंके समीप आया । मा.तने हेला मारकर स्त्रियों में कही जो यह हाथी मेरे बरा नहीं. तमघ्र ही भागो। तब वह स्त्रियां हरिषेणके शरणे आई। हरिरोण परमदयालु हैं महायोधा हैं । वह त्रयोंको पीछ करके आप हाथीके सम्मुख भए अर मना बिचारी जो वहां तो वे तापस दीन थे वा उनस मेन युद्ध न किया वे मृग समान थे परंतु यहां यह दुष्ट हस्ती मेरे देखत स्त्री बालादिकको हने अर मैं सहाय न सो पर क्षत्री कृति नहीं, यह हस्ती इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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