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________________ ७० पद्म-पुराण दिकके शब्दसे महाभयानक है यह तो वहां विद्या साधे है अर राजा व्योमविन्दुने अपनी पुत्री केकसी इसकी सेवा करणे को इसके लिंग भेजी सो सेवा करे हाथ जोड़े रहे अाज्ञाकी है अभिलाषा जिसके, कैएक दिनोंमें रत्नश्रयाका नियम समाप्त भया, सिद्धोंको नमस्कार कर मौन छोड़ा। केकसीको अकेली देखी । कैसी है केकसी ? सरल हैं नेत्र जिसके नीलकमल समान सुन्दर भर लाल कमल समान है मुख जिसका कुन्दके पुष्प समान हैं दन्त अर पुष्पोंकी माला समान है कोमल सुन्दर भुजा अर मूंगा समान है कोमल मनोहर अधर, मौलश्रीके पुष्पोंकी सुगन्ध समान है निश्वास जिसके, चंपेकी कली समान है रंग जिसका, अथवा उस समान चंपक कहीं भर स्वर्ण कहाँ ? मानो लक्ष्मी रत्नश्रवाके रूपमें वश हुई कमलोंके निवासकों तज सेवा करनेको आई है। चरणारविंदकी ओर हैं नेत्र जिसके, लज्जासे नम्रीभूत है शरीर जिसका, अपने रूप वा लावण्यसे कूपलों की शोभाको उलंघती हुई स्वासनकी सुगन्धतासे जिसके मुखपर भ्रमर गुजार करे हैं। अति सुकुमार है तनु जिसका, अर योवन आवतासा है मानों इसकी अति सुकुमारता के भयसे योवन भी स्पर्शता शंके है मानो समस्त स्त्रियोंका रूप एकत्र कर बनाई है, अद्भुत है सुन्दरता जिसकी, मानों साक्षात् विद्यः ही शरीर धार कर रत्नश्रवाके तपसे वशी होकर महा कांतिकी धारणहारी आई है। तब रत्नश्रवा जिनका स्वभावही दयावान है, केकसी को पूछते भए कि तू कौनकी पुत्री है अर कौन अर्थ अकेली यूथसे विछुरी मृगी समान महा वनमें रहे है अर तेरा क्या नाम है तब यह अत्यन्त माधुर्यता रूप गदगद वाणीसे कहती भई-हे देव ! राजा व्योमविंदु राणी नन्दवती तिनकी मैं केकसी नामा पुत्री आपकी सेवा करणे को पिताने राखी है । ताही समय रत्नश्रयाको मानसस्तम्भिनी विद्या सिद्ध भई सो विद्याके प्रभावसे उसी मनमें पुष्पांतक नामा नगर बसाया र केकसीको विधिपूर्वक परणा अर उसी नगरमें रहकर मन वांछित भोग भागो भए, प्रिया प्रीतममें अद्भुत प्रीति होती भई, एक क्षण भी आपसमें वियोग सहार न सके। यह केकसी र नवाके चित्तका बंधन होती भई दोनों अत्यन्त रूपवान नव यौवन महा धनवान इन धर्मके प्रभावसे किसी भी वस्तुको कमी नहीं। यह राणी पतिव्रता पतिकी छाया समान अनुगामिनी होती भई ॥ एक समय यह राणी रत्नके महलमें सुन्दर सेजपर पड़ी होती । कैसी है सज ? चार समुद्रकी तरंग समान उज्ज्वल है वस्त्र जहां अर कोमल है अनेक सुगन्धकर मंडित है रत्नोंका उद्योत होय रहा है राणीके शरीरकी सुगन्धसे भ्र र गुजार कर है अपने मनका मोहनहारा जो अपना पति उसके गुणोंको चित्वती हुई घर पुत्रकी उत्पत्ति को बांछती हुई पड़ी हुती सो रात्रीके पिछले पहर महा आश्चर्य के करणहार शुभ स्वप्ने देखे बहुरि प्रभातविष अनेक पाने बाजे शंखोंका शब्द भया म ग वन्दी जन विरद चखानते भए तब राणी सेजसे उठकर प्रभात क्रियाकर महामंगलरूप आभूषण पहर सखियोंसे मण्डित पतिके ढिग आई । राजा राणीको देख उठे बहुत आदर किया । दोऊ एक सिंहासन पर विराजे, रासी हाथ जोड़ राजासे विनती करती भई-“हे नाथ ! आज रात्रीके चतुर्थ पहरमें मैंने तीन शुभ स्वप्न देखे हैं-एक महापसी सिंह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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