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________________ पा-बुराण राजासे विनती करते भए कि राजा विदुतकेशका अर अपना एक व्यवहार है राजाने बालक पुत्र सुकेशको राज दीया है सो तिहारे भरोसे दिया है सुकेशके राज्यकी दृढ़ता तुमको राखनी उचित है जैसा उनका पुत्र तैसा तिहारा इसलिए कैएक दिन आप बैराग्य न धरें, आप नवयौवन हो इंद्र कैसे भोगोंसे यह निष्कंटक राज्य भोगो इस भाति युवराज वीनती करी अर अश्रुपातकी वर्षा करी तो भी राजाके मनमें न आई अर मंत्री महा नयके वेत्ताने भी अति दीन होय बीनती करी कि हे नाथ ! हम अनाथ हैं जैसे बेल वृक्षोंसे लग रहै तैसे तुम्हारे चरणसे लगि रहे हैं तुम्हारे मन में हमारा मन तिष्ठे है सो हमको छोडिकर जाना योग्य नहीं इस भांति बहुत बीनती करी तो भी राजाने न मानी अर राणीने बहुत बीनती करी चरणोंमें लेट गई बहुत अUणत डारे । राणी गुणके समू से राजाकी प्यारी थी सो विरक्तभावसे राजाने नीरस देखी। तब राणी कहे है कि हे नाथ ! हम तुम्हारे गुणोंकर बहुत दिनकी बंधी अर तुमने हमको बहुत लढाई महालक्ष्मीके समान हमको राखी अब स्नेह पाश तोड़ कहां जावो हो इत्यादि अनेक बात करी सो राजाने चित्तमें एक न धरी अर राजाके बड़े बड़े सामन्तोंने भी बीनती करी कि हे देव ! इस नवयौवनमें राज छोड़ कहां जावो सबसे मोह क्या तजा इत्यादि अनेक स्नेह भरे बचन कहे राजाने किसी की न सुनी स्नेह पाश तोड़ सर्व परिग्रहका त्यागकर प्रतिचंद पुत्रको राज्य देय आप अपने शरीरसे भी उदास होय दिगंबरी दीक्षा पादरी राजा पूर्ण बुद्धिमान महा धीर वीर पृथ्वी अर चन्द्रमा समान उज्जवल है कीर्ति जाकी, सो ध्यानरूप गजपर चढकर तपरूपी तीचा शस्त्रसे कमरूप शत्र को काट सिद्ध पदको प्राप्त भए। प्रतिचंद्र भी कैएक दिन राजकर अपने पुत्र किहकंधको राज्य देय पर छोटे पुत्र अंधकरूढको युवराज पद देय आप दिगम्बर होय शुक्लध्यान के प्रभाव से सिद्ध स्थानको प्राप्त भए । अथानन्तर राजा किहकन्ध पर अधिक रूढ दोऊ भाई गांद सूर्य समाज औरांके तेजको दावकर पृथ्वी पर प्रकाश करते भए। उस समय विजया पर्वतकी दक्षिणश्रेणी में रथनूपुर नामा नगर सुरपुर समान, वहां राजा अशनिवेग महा पराक्रमी दोऊ श्रेणीके स्वामी जिनकी शीति शत्रु वे मानको हरनहारी तिनके पुत्र विजयसिंह महारूपवान, ते आदित्यपुरके राजा विद्यामन्दिर विद्याधर, ताकी राणी वेगवती ताकी पुत्री श्रीमाला, ताके बियाह निमित्त जो स्वयंवर मंडप रचा हुता अर अनेक विद्याधर आए हुते तहां आशनिवेगके पुत्र विजयसिंह भी पधारे । कैसीहै श्रीमाला जाकी कांतिसे आकाशमें प्रकाश होय रहा है, सकल विद्याधर सिंहासन पर बैठे हैं, बड़े बड़े राजाओंके कुंवर थोड़े २ साथसे तिष्ठे हैं, सबनिकी दृष्टि सोई भई नीलकमलनिकी पंक्ति सो श्रीमालाके ऊपर पड़ी। श्रीमालाको किसीसे भी रागद्वप नहीं, मध्यस्थ परिणाम है । वे विद्याधर कुमार मदनसे तप्त है चित्त जिनका अनक सविकार चेष्टा करते भए। कैगक तो माथेका मुकुट निकंप था तो भी उसको सुन्दर हाथोंसे ठीक करते भए, कैएक खंजर पास थरा था तो भी करके ग्रभागसे हिलावते भए, कटाक्षकर करी है दृष्टेि जिन्होंने अर कैएकके किनारे मनुष्य चमर ढोरते हुते अर धीजना करते हो तो भी लीला सहित महा सुन्दर रूमालो अपने मुखकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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