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________________ एकसोचौदहेवा पक्ष भगवान सर्वज्ञदेवको अनेक नामकर भव्य जीव गावे हैं जिनेन्द्र भगवान अहंत स्वयंभू शंभू स्वयं प्रभ सुगत शिवस्थान महादेव कालंजर हिरण्यगर्भ देवाधिदेव ईश्वर महेश्वर ब्रह्मा विष्णु बुद्ध वीतराग विमल विपुल प्रवल धर्मचक्री प्रभु विभु परमेश्वर परम ज्योति परमात्मा तीर्थकर कृत कृत्य कृपालु संसारसूदन सुर ज्ञान चतु भवांतक इत्यादि. अपार नाम योगीश्वर गावे हैं अर इंद्र धरणींद्र चक्रवर्ती भक्तिकर स्तुति करे हैं जो गोप्य हैं पर प्रकट हैं जिनके नाम सकल अथ संयुक्त हैं जिसके प्रसाद कर यह जीव कर्मसे छूट कर परम धामको प्राप्त होय हैं जैसा जीवका स्वभाव है तैसा वहां रहे है जो स्मरण करे उसके पाप बिलाय जाय वह भगवान पुराण पुरुषोत्तम परम उत्कृष्ट आनन्दकी उत्पत्तिका कारण महा कल्याणका मूल देवनिक देव उसके तुम भक्त होती अपना कल्याण चाहो तो अपने हृदय कमलमें जिनराजको पधरावो, यह जीव अनादि निधन है कर्मोंका प्रेरा भववनमें भटके है सर्व जन्ममें मनुष्य भव दुर्लभ है सो मनुष्य जन्म पाय कर जे भूले हैं तिनको धिक्कार है चतुर्गति रूप है भ्रमण जिममें ऐसा संसार रूप समुद्र उनमें बहुरि कब बोध पावोगे । जे अर्हतका ध्यान नहीं कर हैं अहो धिक्कार उनको, जे मनुष्य देह पाय कर जिने. न्द्रको न जपे हैं जिनेन्द्र कर्म रूप वैरीका नाशकरणहारा उसे भूल पापी नाना योनिमें भ्रमण करे है कभी मिथ्या तपकर क्षुद्र देव होय है बहुरि मरकर स्थावर योनिमें जाय महा कष्ट भोगे हैं यह जीव कुम र्गके आश्रयकर महा मोहके वश भए इन्द्रोंका इन्द्र जो जिनेन्द्र उसे नहीं ध्यावे हैं देखो मनुष्य होय कर मूर्ख विषय रूप मांसके लोभी मोहिनी कर्मके योगकर अहंकार ममकारको प्राप्त होय हैं जिनदीक्षा नहीं धरें हैं मंद भागियोंके जिन दीक्षा दुर्लभ है कभी कुतपकर मिथ्यादृष्टि स्वर्गसे आन उपजे हैं सो हीन देव होय पश्चाताप करे हैं कि हम मध्य लोक रत्नद्वीपमें मनुष्य भए थे सो अहतका मार्ग न जाना अपना कल्याण न किया मिथ्या तप कर कुदेव भए हाय हाय धिक्कार उन पापियों को जो कुशास्त्रकी प्ररूपणाकर मिथ्या उपदेश देय महामानके भरे जीवोंको कुमार्गमें डारे हैं मृहको जिनधर्म दुर्लभ है तातें भव भवमें देखी होय हैं अर नारकी तिर्यच तो दुखी ही हैं अर हीन देव भी दुखी ही हैं अर बडी ऋद्धिके धारी देव भी स्वर्गसे चये हैं मो मरणका बडा दुख है अर इष्ट वियोगका बडा दुख है बडे देवोंकी भी यह दशा तो और क्षुद्रोंकी कहा बात जो मनुष्य देहमें ज्ञान पाय आत्म कन्याण करे है सो धन्य हैं। इन्द्र या मांति कहकर बहुरि कहता भया ऐसा दिन कब होय जो मेरी स्वर्ग लोकमें स्थित पूर्ण होय अर मैं मनुष्य देह पाय विषय रूप वैरियोको जीत कर्मों का नाश कर तपके प्रभावसे मुक्ति पाऊ तब एक देव कहता भया यहां स्वर्गमें तो अपनी यही बुद्धि होय है परन्तु मनुष्य देह पाय भूल जाय हैं जो कदाचित मेरे कहे की प्रतीति न करो तो पंचम स्वर्गका ब्रमोंद्रनामा इन्द्र अब रामचन्द्र भया है सो यहां तो योंही कहते थे पर अब वैराग्यका विचार ही नही तब शचीका पति सौधर्म इन्द्र कहता भया सब बंधन में स्नेहका बडा बंधन है जो हाथ पग कंठ आदि अंग अंग बंधा होय मो तो छूटै परन्तु स्नेह रूप बंधन कर बंधा कैसे छूटे स्नेहका बंधा एक अंगुल न जाय सके रामचन्द्रके लक्ष्मणसे अति अनुराग है लक्ष्मणके देखे बिना तृप्ति नाहीं अपने जीवसे भी अधिक जाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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