SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 588
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकसौतेरहवा १६ है वहां स्वामी धरित्न संयमी धर्मरूप रत्नकी राशि उत्तम योगीश्वर जिनके दर्शनसे पाप विलाय जावे असे सन्त चारण मुनि अनेक चारण ऋद्धियों मंडित तिष्ठते थे। आकाश में है गमन जिनका सो दूरसे उनको देख हनूमान पालकीसे उतरा महा भक्तिकरयुक्त नमस्कारवर हाथ जोड कहता भया-हे नाथ ! मैं शरीरादिक परद्रव्योसे निर्ममत्व भया यह परमेश्री दीक्षा श्राप मुझे कृपाकर देवो। तब मुनि कहते भए-हो भव्य ! तैंने भली विचारी तू उत्तम जन है जिनदीक्षा लेहु । यह जगत असार है शरीर विनश्वर है शीघ्र आत्मकल्याण करो अविनश्वर पद लेवेकी परमकल्याणकारणी बुद्धि तुम्हारे उपजी है यह बुद्धि विवेकी जीवके ही उपजे है ऐसी मुनिकी आज्ञा पाय मुनिको प्रणामकर पद्मासन धर तिष्ठा मुकट कुण्डल हार आदि सव आभूषण डारे अर वस्त्र डारे जगतसे मनका राग निवारा, स्त्रीरूप बन्धन तुडाय ममता मोह मिटाय आपको स्नेहरूप पाशसे छुडाय विष समान विषय सुख तजकर वैराग्यरूप दीपककी शिखाकर रागरूप अंधकार निवारकर शरीर अर संसारको असार जान कमलोंको जीते असे सुकुमार जे कर तिनकर सिरके केशलौंच करता भया समस्त परिग्रहसे रहित होय मोक्षलक्ष्मीको उद्यमी भया महाव्रत धरे असंयम परिहरे हनूमान् की लार साढे सातमो बडे राजा विद्याधर शुद्ध चित्त विद्युद्गतिको आदि दे हनूमानके परम मित्र अपने पुत्रों को राज्य देय अठाईस मूलगुण धार योगीन्द्र भए अर हनूमानकी रानी श्रर इन राजावोंकी राणी प्रथम तो वियोगरूप अग्निकर तप्तायमान विलाप करती भई फिर वैराग्यको प्राप्त होय बंधुमति नामा आर्थिवाके समीप जाय महा भक्ति कर संयुक्त नमस्कारकर आर्यिकाके व्रत धारती भई । वे महाबुद्धिवंती शीलवंती भव भ्रमणके भयसे आभूषण डार एक सुफेद वस्त्र राखती भई शील ही है आभूषण जिनके तिनको राज्यविभूति जीर्ण तृण समान भासती भई अर हनूमान महाबुद्धिमान महातपोधन महापुरुष संसार से अत्यंत विरक्त पंचमहाव्रत पंचममिति तीनगुप्ति धार शैल कहिए पर्वत उससे भी अधिक, श्रीशैल कहिए हनूमान राजा पवन के पुत्र चारित्र में अचल होते भए तिनका यश निर्मल इन्द्रादिक देव गावें बारम्बार वन्दना करें अर बडे २ राजा कीर्ति करें निर्मल है आचरण जिनका ऐसा सर्वज्ञ वीतराग देवका भाषा निर्मल धर्म आचर या सो भवसागरके पार भया वे हनूमान महामुनि पुरुषोंमें सूर्य समान तेजस्वी जिनेंद्रदेवका धर्म श्राराध ध्यान अग्निकर अष्ट कर्मकी समस्त प्रकृति ईधनरूप तिनको भस्मकर तुङ्गिगिरिके शिखरसे सिद्ध भए। केवलज्ञान केवल दर्शन आदि अनन्त गुणमई सदा सिद्ध लोकमें रहेंगे। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावनिकाविौं हनूमानका निर्वाण गमन वर्णन करनेवाला एकसौ तेरहवां पर्व पूर्ण भया । १५६ ॥ अथानन्तर राम सिंहासन पर विराजे थे लक्ष्मणके आठो पुत्रोंका अर हनूमानका मुनि होना मनुष्योंके मुखसे सुनकर हंसे अर कहते भये इन्होंने मनुष्य भवके क्या सुख भोगे । यह छोटी अवस्थामें ऐसे भोग तज कर योग धारण करें हैं सो बडा आश्चर्य है यह हठ रूप ग्राहकर ग्रहे हैं देखो! ऐसे मनोहर काम भोग तज विरक्त होय बैठे हैं या भांति कही यद्यपि श्रीराम सभ्य. कदृष्टि ज्ञानी हैं तथापि चारित्र मोहके वश कैयक दिन लोकोंकी न्याई जगतमें रहते भये संसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy