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________________ ५-७५ एकसौवारा प वृक्षों को प्रफुल्लित करणहारी प्रिया अर प्रीतमके प्रेमको बढावनहारा सुगंध चले है पवन जिसमें ऐसे समय में अंजनीका पुत्र जिनेंद्रकी भक्ति में श्रारूढचित्त, अति हर्ष कर पूर्ण हजागं स्त्रीनि सहित सुमेरु पर्वत की ओर चला हजारां विद्याधर हैं संग जिसके श्रेष्ठ विमानमें चढे परम ऋद्धिकर संयुक्त मार्ग में वनमें क्रीडा करते भए । कैसे है बन ? शीतल मंद सुगन्ध चले हैं पवन जहां नाना प्रकार के पुष्प र फलों कर शोभत वृक्ष हैं जहां देवांगना में हैं पर कुल चलों में सुन्दर सरोवरों कर युक्त अनेक मनोहर वन जिनमें भ्रमर गुंजार करें हैं और कोयल बोल रही हैं श्रर नाना प्रकार के पशु पक्षियोंके युगल विचरें हैं जहां सर्व जातिके पत्र पुष्प फल शोभे हैं अर रत्ननिकी ज्योतिकर उद्योतरूप हैं पर्वत जहां अर नदी निर्मल जलकी भरी सुन्दर हैं नट जिनके अर सरोवर श्रति रमणीक नाना प्रकारके मकरंद कर रंग रूप होय रहा हैं सुगन्ध जल जिनका कर वापिका अति मनोहर जिनके रत्नोंके सिवान श्रर तटोंके निकट बडे बडे वृक्ष हैं अर नदी में तरंग उठे हैं झागोंके समूह सहित महा शब्द करती बहे हैं जिनमें मगरमच्छ आदि जलचर क्रीडा करें हैं दोनों तटमें लहलहाट करते अनेक वन उपवन महा मनोहर विचित्र गति लिये शोभे हैं जिनमें क्रीडा कर वेके सुन्दर महल अर नाना प्रहार रत्नकर निर्माये जिनेशरके मंदिर पापोंके हरहारे अनेक हैं । पचनपुत्र सुन्दर स्त्रियोकर सेवित परम उदय कर युक्त अनेक गिरियों में कृ त्रिम चैत्यालयों का दर्शन कर विमानमें चढा स्त्रियोंकों पृथिवीकी शोभा दिखावता श्रति प्रसन्न - तासे स्त्रियोंसे कहे है — हे प्रिय ! सुमेरुमें अति रमणोक जिन मन्दिर स्वर्णमयी भासे हैं श्रर इनकी शिखर सूर्यसमान देदीप्यमान महा मनोहर भासे हैं अर गिरिकी गुफा तिनके मनोहर द्वार रत्नजडित शोभा नाना रंगको ज्योति परस्पर मिल रही हैं वहां अरति उपजे ही नाहीं सुमेरुकी भूमितल में अतिरमणीक भद्रशालबन है अर सुमेरुकी कटि मेखला में विस्तीर्ण नंदन यन पर सुमेरुके वक्षस्थल में सौमनस बन है जहां कल्पवृक्ष कल्पलताओंसे बेटे सोहे हैं श्रर नानाप्रकार रत्नोंकी शिला शोभित हैं और सुमेरु शिखरमें पांडुक बन हैं जहां जिनेश्वर देवका जन्मोत्सव होय है चारों ही वनमें चार चार चैत्यालय हैं जहां निरंतर देव देवियोंका आगम है यक्ष किन्नर गंवके संगतिकर नाद होय रहा है श्रप्सरा नृत्य करे हैं कल्पवृक्षों के पुष्प मनोहर हैं। नानाप्रकार के मंगल द्रव्यकर पूर्ण यह भगवान् के अकृत्रिम चैत्यालय अनादि निधन हैं। हे प्रिय पांडुक वन में परम अद्भुत जिन मन्दिर सोहैं हैं जिनके देखे मन हरा जाय, महाप्रज्वलित निघून अग्नि समान संध्या के चादरोंके रंग समान उगते सूर्य समान स्वर्णमई शोभे हैं समस्त उत्तम रत्नकर शोभित सुन्दराकार हजारों मोतियोंकी माला तिनकर मंडित मनोहर हैं । मालावोंके मोती कैसे सोहै हैं मानों जलके बुबुदाही हैं पर घंटा झांझ मंजीरा मृदंग चमर तिनकर शोभित है चौगिरद कोट ऊंचे दरवाजे इत्यादि परम विभूति कर बिराजमान हैं नाना रंगकी फराहती हुयी ध्वजा स्वर्ण के स्तंभ कर देदीप्यमान इन अकृत्रिम चैत्यालयोंकी शोभा कहां लग कह जिनका संपूर्ण वर्णन इन्द्रादिक देव भी न कर सके, हे कांत पांडुक बनके चैत्यालय मानों सुमेरुका मुकुट ही हैं अतिरमणीकहैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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