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________________ एकसाता प ३५६ धरिवेकी इच्छा है, तब श्रीराम कहते भए जिनदीक्षा अति दुर्धर है तू जगतका स्नेह तज कैसे धारैगा महातीव्र शीत उष्ण आदि बाईस परिषद कैसे सहेगा अर दुर्जन जनोंके दुष्टवचन कंटक तुल्य कैसे सहेगार अब तक तैंने कभी भी दुख सहे नहीं कमलकी कणिका समान शरीर तेरा सो कैसे विषमभूमिके दुख सहेगा गहन वनमें कैसे रात्री पूरी करेगा अर प्रकट दृष्टि पडे हैं शरीर के हाड र नसा जाल जहां ऐसे उग्र तप कैसे करेगा अर पक्ष मास उपवासका दोष टाल परघर नीरस भोजन कैसे करेगा ? तू महा तेजस्वी शत्रुओं की सेना के शब्द न सहि सकै सो कैपे नीच लोकों के किये उपसर्ग सहेगा ? तब कृतांत बोला हे देव ! जब मैं तिहारे स्नेहरूप अमृतको ही तजवेको समर्थ भया तो मुझे कहां विषम है जब तक मृत्यु रूप वज्रकर यह देहरूप स्तंभ न चिंगे ता पहिले मैं महादुखरूप यह भववन अधिकारमई वाससे निकसा चाहूं जो बलते घरमेंसे निकसे उसे दयावान न रोकै यह संसार अमार महानिद्य है इसे तजकर आत्महित करू । अवश्य इष्टका वियोग होयगा या शरीर के योगकर सर्व दुख हैं सो हमारे शरीर बहुरि उदय न आवे या उपा में बुद्धि उद्यमी भई है । ये वचन के सुन श्रीरामके आसू आए और नीठे नीठे मोहको दात्र कहते भए - मेरीसी विभूतिको तज तू तपको सन्मुख भया है सो धन्य है जो कदाचित् या जन्ममें मोक्ष न होय अर देव होयतो संकटमें आय मोहि संबोधियो । हे मित्र ! जो तू मेरा उपकार जाने है तो देवगतिमें विस्मरण मत करियो । 1 तब कृतांतवक्रने नमस्कारकर कही हे देव ! आप श्रज्ञा करोगे सोही होगा ऐसा कह सर्व आभूषण उतारे र सकलभूषण केवलीको प्रणामकर अन्तर बाहिरके परिग्रह तजे कृतांतयक्र था सो सौम्यवक्र होय गया । सुन्दर है चेष्टा जिसकी, इसको आदि दे अनेक महाराजा वैरागी भए उपजी है जिनधर्मकी रुचि जिनके निर्ग्रन्थत्रत धारते भए र कैयक श्रावक व्रतको प्राप्त भए अर कैथक सम्यक्त्व को धारते भए वह सभा हर्षित होय रत्नत्रय श्राभूषणकर शोभित भई । समस्त सुर असुर नर सकलभूषण स्वामीको नमस्कारकर अपने अपने स्थानक गए अर कमल समान हैं नेत्र जिनके, ऐसे श्रीराम सकलभूषण स्वामीको र समस्त साधुवोंको प्रणामकर महा विनयरूपी सीता के समीप आए। कैसी है सीता ? महा निर्मल तपकर तेज धरे जैसी घृतकी आहुतिकर श्रग्निकी शिखा प्रज्वलित होय तैसी पापोंके भस्म करिवेको साक्षात् अग्निरूप तिष्ठी है श्रार्थिकावों के मध्य तिष्ठी देखी देदीप्यमान हैं किरणों का समूह जिसके, मानों अपूर्व चन्द्रकांतिः तारावोंके मध्य तिष्ठती हैं आर्थिक व घरे अत्यन्त निश्चल हैं । तजे हैं आभूषण जिसने तथापि श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी लज्जा इनकी शिरोमणि सोहै श्वेत वस्त्रको धरे कैसी सोहे है मानों मंद पवनकर चलायमान हैं फेन कहिए झाग जिसके ऐसी पवित्र नदी ही हैं घर मानों निर्मल शरद पूनों की चांदनी समान शोभाको घरे समस्त आर्यिकारूप कुमुदनियोंको प्रफुल्लित करणहारी भा है महा वैराग्यको घरे मूर्तिवंती जिनशासनकी देवता ही है सो ऐसी सीताको देख आश्चर्यको प्राप्त भया है मन जिनका ऐसे श्रीराम कल्पवृक्ष समान क्षण एक निश्चल होय रहे स्थिर हैं नेत्र भ्रकुटी जिनकी जैसी शरदकी मेघमालाके समीप कंचनगिरि सोहैं तैसे श्रीराम आर्थिकार्योंके समीप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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