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________________ एकसौछहवा पर्व णवतीके कारण महा वैर उपजा था सो अनेक जन्मोंमें दोनों परस्पर लड लड मरे पर गुणवतीसे तथा वेदबतीसे रावणके जीवके अभिलाषा उपजी थी उस कारण कर रावणने सीता हरी पर वेदवतीका पिता श्रीभृति सम्यकदृष्टि उत्तम ब्राह्मण सो वेदवती के अर्थ शत्रुने हता सो स्वर्ग जाय वहांसे चयकर प्रतिष्ठित नामा नगरमें पुनर्वसु नाम विद्याधर भया सो निदानसहित तपकर तीजे स्वर्ग जाय रामका लघु भ्राता महा स्नेहवंत लक्ष्मण भया अर पूर्वले वैरके योगसे रावणको मारा अर वेदवतीसे शभुने विपर्यय करी तातें सीता रावणके नाशका कारण भई जो जिसको हते सो उसकर हता जाय । तीन खण्डकी लक्ष्मी सोई भई रात्रि उसका चन्द्रमा रावण ताहि हतकर लक्ष्मण सागरान्त पृथिवीका अधिपति भया, रावणसा शूर वीर पराक्रमी या भांति मारा जाय यह कर्मोंका दोष है दुर्बलसे सबल होय सबलसे दुर्बल होय, घातक है सो हता जाय अर हता होय सो घातक होय जाय । संसारके जीवोंकी यही गति है कर्मकी चेष्टा कर कभी स्वर्गके सुख पावें कभी नरकके दुःख पावे अर जैसे कोई महास्वादरूप परम अन्न उसमें विष मिलाय दुषित करे तैसे मूढ जीव उग्र तपको भोगविलास कर दुषित करे है जैसे कोई कल्पवृक्षको काटि कोईकी वाडि करे अर पिके वृक्षको अमृतरस कर सींचे अर भस्मके निमित्त रत्नोंकी राशिको जलावे पर कोयलोके निमित्त मलयागिरि चन्दनको दग्ध करे तैसे निदान बंधकर तपको यह अज्ञानी दूषित करें या संसारमें सर्व दोषकी खान स्त्री है तिसके अर्थ क्या कुकर्म अज्ञानी न करें । जो या जीवने कर्म उपार्जें हैं सो अवश्य फल देय हैं कोऊ अन्यथा करिबे समर्थ नहीं, जे धर्ममें प्रीति करें बहुरि धर्म उपार्जे वे कुगतिको प्राप्त होय हैं जिनकी भूल कहा कहिए ? जे साधु होयकर मदमत्सर धरे हैं तिन को उग्रतप कर मुक्ति नहीं अर जिसके शांति भाव नही संयम नहीं तप नहीं उम दुर्जन मिथ्यादृष्टि के संसार सागरके तिरिवेका उपाय कहां ? अर जैसे असराल पवनकर मदोन्मत्त गजेन्द्र उडे तो सुसा के उडवेका कहा आश्चर्य तैसे संसारकी झूठी मायामें चक्रवादिक बडे पुरुष भृले तो छोटे मनुष्यनिकी कहा बात इस जगत्में परम दुखका कारण वैर भाव हैं सो विवेकी न करें आत्मकन्याण की है भावना जिनके पापकी करण हारी वाणी कदापि न बोले । गुणवतीके भवमें मुनि का अपवाद किग था अर वेदवतीके भवमें एक मंडिलकानामा ग्राम वहां सुदर्शन नामा मुनि वन में आये जो लोक बन्दनाकर पीछे गये अर मुनिकी बहिन सुदर्शना नामा आर्यिका सो मुनिके निकट बैठी धर्म श्रवण करे थी सो वेदवतीने देख कर ग्रामके लोकोंके निकट मुनिकी निंदा करी कि मैं मुनिकोअकेली स्त्रीके समीप बैठा देखा तब कैयकोंने बात न मानी पर कैयक बुद्धिवन्तों ने न मानी परन्तु ग्राममें मुनिका अपवाद भया, तब मुनिने नियम किया कि यह झूठा अपवाद दूर होय तो आहारको उतरना अन्यथा नहीं तब नगरके देवताने वेदवतीके मुखकर समस्त ग्रामके लोकोंको कहाई कि मैं झठा अपवाद किया। यह बहिन भाई हैं अर मुनिके निकट जाय वेदवतीने क्षमा कराई कि हे प्रभो ! मैं पापिनीने मिथ्या बचन कहे सो क्षमा करी या भांति मुनिकी निंदा कर सीताका झूठा अपवाद भया, पर मुनिसे क्षमा कराई उसकर अपवाद दर भया तात जे जिनमार्गी हैं वे कभी भी पर निंदा न करे किसी में सांचा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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