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________________ पद्म-पुराण भया है सो बालक समान अविवेकी है। जैसे बालक विना समझ अभक्षका भक्षणकरै विषपान करै है तैसे मृढ अयोग्यका आचरण करे है । जे विषयके अनुरागी हैं सो अपना बुरा करे है, जीवोंके कर्म बथकी विचित्रता है इसीलिए सब ही ज्ञानके अधिकारी नहीं, कैयक महाभाग्य ज्ञान को पावे हैं पर कैयक ज्ञानको पाय और वस्तुकी वांछाकर अज्ञानदशाको प्राप्त होय हैं अर कैयक महानिंद्य जो यह संसारी जीवनिके मार्ग तिनमें रुचि करें हैं, वे मार्ग महादोषके भरे हैं जिनमें विषय कषायकी बहुलता है जिनशासनसे और कोई दुखके छड़ायवेका मार्ग नाहीं इसलिए हे विभीषण ! तुम आनन्द चित्त होयकर जिनेश्वर देवका अर्चन करो, इमीभांति धनदत्तका जीव मनुष्यसे देव, देवसे मनुष्य होय कर नवमे भव रामचन्द्र भए, उसकी विगत-पहिले भव धनदत्त १ दूजे भव पहले स्वर्ग देव २ तीजे भव पद्मरुचि सेठ ३ चौथे भव दूजे स्वर्ग देव ४ पांचवें भव नयनानंदराजा ५ छठे भव चोथे स्वर्गदेव ६ सातवें भव श्रीचन्द्र राजा ७ आठवें भव पांचवें स्वर्ग इंद्र-नववें भव रामचन्द्र ६ आगे मोक्ष यह तो रामके भव कहे अब हे लंकेश्वर ! बसुदत्तादिकका वृत्तांत सुन-कर्मोकी विचिप्रगति ताके योगकर मृणाल कुण्ड नामा नगर तहां राजा विजयसेन राणी रत्नचूला उसके वज्रकंबु नामा पुत्र उसके हेमवती राणी उसके शंभुनामा पुत्र पृथ्वी में प्रसिद्ध सो यह श्रीकांतका जीव रावण होनहार सो पृथ्वीमें प्रसिद्ध अर वसुदत्तका जीव राजाका पुरोहित उस का नाम श्रीभूति सो लक्ष्मण होनहार, महा जिनधर्मी सम्यकदृष्टि उसके स्त्री सरस्वती उसके वेदवती नामा पुत्री भई-सो गुणवतीका जीव सीता होनहार गुणवतीके भवसे पूर्व सम्यक्त्व विना अनेक तिथंच योनि में भ्रमणकर साधुवोंकी निंदाके दोपकर गंगाके तट मरकर हथिनी भई । एक दिन कीचमें फंसी पराधीन होय गया है शरीर जिसका नेत्र तिरमिराट अर मंद २ सांस लेय सी एक तरंगवेग नामा विद्याधर महा दयावान उसने हथिनीके कानमें नमोकार मंत्र दिया सो नमोकार मंत्रके प्रभावकर मन्द कषाय भई अर विद्याधरने व्रत भी दिए सो जिनधर्मके प्रसादसे श्रीभूत पुरोहितके वेदवती पुत्री भई । एक दिन मुनि आहारको आए सो यह हंसने लगी तब पिताने निवारी सो यह शांतचित्त होय श्राविका भई अर यह कन्या परमरूपवती सो अनेक राजावोंके पुत्र इसके परिणावे को अभिलाषी भए अर यह राजाविजयसेन का पोता शंभु जो रावण होनहार है सो विशेष अनुरागी भया अर पुरोहित श्रीभूति महा जिनधर्मी सो उसने जो मिथ्यादृष्टिकुवेर समान धनवान होय तो हू मैं पुत्री न दूं यह मेरे प्रतिज्ञा है तब शंभुकुमारने रात्रिमें पुरोहितको मारा सोपुरोहित जिनधर्म के प्रसादसे स्वर्ग लोकमें देव भया अर शंभुकुमार पापी वेदवती साक्षात् देवी समान उसे न इच्छती को बलात्कार परणवेको उद्यमी भया वेदवतीके सर्वथा अभिलाषा नाही तर कामकर प्रज्वलित इस पापीने जोरावरी कन्याको आलिंगनकर मुख चंब मैथुन किया तब कन्या विरक्त हृदय कांपे है शरीर जिसका अग्निकी शिखा समान प्रज्वलित अपने शील घातकर अर पिता के घातक परम दुखको धरती लाल नेत्रहोय महा कोपकर कहती भई अरंपापी । तैंने मेरे पिताको मार मो कुमारीसे बलात्कार विपय सेवन किया सो नीच ! मैं तेरे नाश का कारण होऊगी मेरा पिता तैंने मारा सी बड़ा अनर्थ किया मैं पिताका मनोरथ कभ भी न उलंघूमिथ्या दृष्टि सेवनसे मरण भला एसा कह वेदवती श्रीभूति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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