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________________ एकटौपांचवा पर करि मियादृष्टि की स्तुति करना इन कर सम्पक्त्वमें दूषण उपजे हैं श्रर मैत्री प्रमोद कारुण्य मध्यस्थ ये चार भावना अथवा अनित्यादि बारह भावना अथवा प्रशम संबेम अनुकंपा भास्ति. क्य अर शंकादि दोष रहित पन जिन प्रतिमा जिनमंदिर जिनशास्त्र मुनिराजकी भक्ति इनकर सम्यक दर्शन निर्मल होय है अर सर्वज्ञके वचन प्रमाण वस्तुका जानना सोज्ञानको निर्मलता का कारण है पर जो काहून सधै ऐसी दुबर क्रया प्राचरणी ताहि चारित्र कहिये पांचों इन्द्रिनिका निरोध मनका नि. रोध वचनका निरोध सर्व पापक्रियानिका त्याग सो चारित्र कहिये त्रस स्थावर सर्व जीवकी दया सूब को आप समान जाने सो चरित्र कहिये, अर सुननेवाले के मन अर काननिको अानन्दकारी स्निग्ध मधुर अर्थसंयुक्त कल्याणकारी वचन बोलना सो चारित्र कहिये, पर मन बचन कायकर परवन का त्याग करना किसी का विना दिया कछ न लेना अर दिया हुआ थाहारमात्र लेना सो चारित्र कहिये पर जो देवनिकर पूज्य महादुर्धर ब्रमचर्यतका थारण सो चारित्र कहिये अर शिवमार्ग कहिये निर्वाण का मार्ग ताहि विघ्नकरण हारी मूर्छा कहिये मन की अभिलाषा ताका त्याग सोई परिग्रहका त्याग सो हू चारित्र कहिए है । ये मुनिनिकेधर्म कहे पर जो अणवती श्रावक मुनिको श्रद्धा आदि गुणनिकर युक्त नवधाभक्तिकरि आहार देना सो एकदेशचारित्र कहो अर परदारा परवनका परिहार परपीडा का निवारण दया धर्मका अंगीकार दान शील पूजा प्रभावना पोग्वासादिक सो ये देश चारित्र कहिये पर यम कहिये यावज्जीव पापका परिहार, नियम कहिये मर्यादाला त तप का अंगीकार वैराग्य विनय विवेक ज्ञान मन इन्द्रियों का सिरोव ध्यान इत्यादि धर्मका आचरण सो एक देश चारित्र कहिये यह अनेक गुणकर युक्त जिनभासित चारित्र परम धामका कारण कल्याण की प्राप्तीके अर्थ सेवन योग्य है जो सम्यकदृष्टी जीव जिनशासनका श्रद्धानी परनिंदाका त्यागी अपनी अशुभ क्रियाका निंदक जगतके जीवोंसे न सधै ऐसे दुईरताका धारक संयमका साधनहारा सोही दुर्लभ चारित्र धारिको ममर्थ होय अर जहां दया यादि समीचीन गण नाहीं तहां चारित्र नाहीं अर चारित्र धिना संसारसे निवृत्ति नाहीं जहां दया क्षमा ज्ञान वैराग्य तप संयम नहीं, तहां धर्म नहीं, विषय पायका त्याग सोई धर्म है सम कहिर समता भाव परम शांत, दम कहिये मन इन्द्रि. योंका निरोध संबर कहिये नगीन कर्मका निरोध जहां ये नहीं तहां चारित्र नहीं जे पापी जीव हिंसा करे हैं झूठ बोले है चोरी करे हैं परस्त्री सेवन करे हैं महा प्रारम्मी हैं परिग्रही हैं तिनके धर्म नाही, जे धर्मके निमित्त हिंसा करे हैं ते अधर्मी अवनतिके पात्र हैं जो मूह जिन दीक्षा लेकर आरभ करे हैं मो यति नहीं । यतिका धर्म प्रारंभ परिग्रह से रहित है परिग्रह धारियांको मुक्ति नहीं जे हिंसा में धर्म जान पटकाविक जीवों की हिंसा करे हैं ते पापी हैं हिंसामें धर्म नाही हिंसकों को याभव परभरके सख नहीं शिव कहिये मोक्ष नाहीं । जे सुखके अर्थ धर्मके अर्थ जीवयात करे हैं सो वृथा हैं जे ग्राम क्षेत्रादिको प्रासक्त हैं गाय भैस राखे हैं मारे हैं बांधे हैं तोडे है दाहे हैं उनके वैराग्य कहां ? जे क्रय विक्रय करें हैं रसोई परहैंडा आदि प्रारंभ राखे हैं सुवणादिक राखे हैं तिनको मुक्ति नाहीं जिनदीक्षा निरारंभ है अतिदुर्लभ है जो जिनदीक्षा धारि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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