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________________ पद्म पुराण के दुन्दुभी बाजे तिनके शब्द कर सब दिशा शब्द रूप होती भई, गुज जातिके वादित्र महा मधुर गुजार करते भए अर मृदंग पाजते भए: ढोल दमामा बाजे नांदी जातिके वादित्र बाजे श्रर काहल जातिके वादित्र बाजे अर तुरही करनाल अनेक वादित्र बाजे शंखके समूह शब्द करते भए अर वीण चांसुरी बाजा ताल झांझ मंजीरा झालरी इत्यादि अनेक वादिन बाजे विद्याधरनिके समूह नाचते भए अर देवनिके यह शब्द भए श्रीमत् राजा जनककी पुत्री परम उदयकी धरणहारी श्रीमत् रामकी राणी अत्यंत जयवन्त होवे अहो निर्मल शील जिसका श्राश्चर्यकारी ऐसे शब्द सब दिशामें देवनिके होते भए तब दोनों पुत्र लवण अंकुश अकृत्रिम है मातासे हित जिनका सो जल तिरकर अतिहर्षके भरे माताके समीप गए दोनों पुत्र दोनों तरफ जाय ठाडे भए, माताको नमस्कार किया सो माताने दोनोंके शिर हाथ धरा रामचन्द्र मिथिलापुरीके राजाकी पुत्री मैथली कहिए सीता उसे कमलवासिनी लक्ष्मी समान देख महा अनुरागके भरे समीप गए, कैसी है सीता ? मानो स्वर्णकी मूर्ति अग्निमें शुद्ध भई है अति उत्तम ज्योति के समूहकर मण्डित हे शरीर जाका । राम कहै है-हे देवी! कल्याणरूपिणी उत्तम जीवनिकर पूज्य महा अद्भुत चेष्टाकी धरणहारी शरदकी पूर्णमासीके चन्द्रमा समान है मुख जिसका ऐसी तुम सो हम पर प्रसन्न होवो अब मैं कभी ऐसा दाप न करूंगा जिसमें तुमको दुख होय । हे शीलरूपिणी मेरा अपराध क्षमा करो मेरे आठ हजार स्त्री हैं तिनकी सरताज तुम हो, मोको अाज्ञा करो सो मैं करू । हे महासती, मैं लोकापवादके भयसे अज्ञानी हो कर तुमको कष्ट उपजाया मोक्षमा करो अर-हे प्रिये ! पृथिवीमें मो सहित यथेष्ट बिहार को यह पृथिवी अनेक वन उपवन गिरियों कर मण्डित है देव विद्याधरनि कर संयुक्त है समस्त जगत् कर आदरसों पूजी थकी मो सहित लोकमें स्वर्ग समान भोग भोगो उगते सूर्य समान यह पुष्पक विमान उसमें मेरे सहित आरूढ भई सुमेरु पर्वतके वनमें जिनमंदिर हैं तिनका दर्शन कर अर जिन २ स्थाननिमें तेरी इच्छा होय वहां क्रीडा कर । हे कांते ! तू जो कहे सो ही मैं कर तेरा वचन कदाचित न उलंघ देवांगना समान वह विद्याधरी तिनकर मंडित हे बुद्विवंती, तू ऐश्वर्यको भज, जो तेरी अभिलाषा होयगी सो तत्काल सिद्ध होयगी । मैं विवेकरहित दोषके सागरविषे मग्न तेरे समीप आया हूं सो साध्वि अब प्रसन्न होवो। __अथानन्तर जानकी बोली-हे राम! तुम्हारा कछु दोप नाहीं अर लोकोंका दोष नाहीं मेरे पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मके उदयसे यह दुख भया मेरा काहू पर कोप नाहीं तुम क्यों विषादको प्राप्त भए ? हे बलदेव, तिहारे प्रसादसे स्वर्ग समान भोग भोगे अब यह इच्छा है ऐसा उपाय करू जिसकर स्त्रीलिंगका अभाव होय यह महा क्षद्र रिनश्वर भयंकर इन्द्रियनिके भोग मूढजनों कर सेव्य तिन कर कहा प्रयोजन ? मैं अनन्त जन्म चौरासी लक्ष योनिमें खेद पाया अब समस्त दुःख के निवृत्तके अर्थ जिनेश्वरी दीक्षा धरूगी ऐसा कहकर नवीन अशोक वृक्षके पल्लव समान अपने जे कर तिनकर केश उपाड रामके समीप डारे सो इन्द्र नील मणि समान श्याम सचिवण पातरे सुगन्ध वक्र लम्बायमान महामृदु महा मनोहर ऐसे केशोंको देखकर राम मोहित होय मृा खाय पृथिवी में पडे सो जौं लग इनको सचेत करें तौलग सीता पृथ्वीमती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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