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________________ ५१३ निन्यानवेवां पर्व सन्मुख पाए सो कृनांतवक्र आयकर श्रीरामचन्द्र के चरणनिको नमस्कारकर कहता भया- हे प्रभो, मैं आज्ञा प्रमाण सीताको भयानक बनमें मेलकर आया हूं वाके गर्भमात्र ही सहाई है । हे देव ! वह वन नाना प्रकारके भयंकर जीवनिके अति घोर शब्दकर महा भयकारी है अर जैमा वैताल प्रेतनिका वन ताका श्राकार देखा न जाय । सघन वृक्षनिके समूह कर अन्धकार रूप हैं, जहां स्वतः स्वभाव पारणे मैं से श्रर सिंह द्वपकर सदा युद्ध करैं हैं और जहां व बसे हैं सो विरूप शब्द करैं हैं अर गुफानिमें सिंह गुजार करे हैं सो गुफा गुजार रहीं हैं घर महा भयंकर अजगर शब्द करे हैं अर चीतानि कर हने गये हैं मृग जहां कालको भी विकराल ऐसा वह वन ता वि-हे प्रभो ! सीता अश्रुपात करती महादीनवदन आपको जो शब्द कहती भई सो सुनो, आप आत्मकल्याण चाहो हो तो जैगे मोहितजी नैसे जिनेंद्रकी भक्ति न तजनी जैसे लोकनिके अप. वादकर मोसे अति अनुराग हुतातोह त जी तो काहूके कहिवेतें जिनशासनकी श्रद्धा न तजनी लोक विना विचारे निदोगनिसों दोष लगावें हैं जैसे मोहि लगाया सो पार न्याय करो सो अपनी बुद्धिसे विचार यथार्थ करना काहू के कहेते काहू को झा दोष न लगावना सम्मकदर्शनत विमुख मिथ्यादृष्टि जिनधर्म रूप रत्नका अपवाद कर हैं सो उनके अपवादके भयतै सम्यकदर्शन की शुद्नान तजनी गीतरागका मार्ग उर में दृढ धारना, मेरे तजनेका या भवमें किंचित् मात्र दुख है अर सम्यक दर्शनकी हानिः जन्म २ विष दुख है या जीवको लोकमें निधि रत्न स्त्री वाहन राज्य सब ही सुलभ हैं ए. सम्यकदर्शन ही महा दुर्लभ है। राजमें पाप कर नरक में पडता है। एक ऊर्ध्वगमन सम्यग्दर्शनके प्रताप हीसे होय । जाने अपनी यात्मा सम्यग्दर्शन रूप आभूषणकर मण्डित किया सो कृतार्थ भया । ये शब्द जानकीने कहे हैं जिनको सुन कर कौनके धर्मबुद्धि न उपजे हे देव ! एक तो वह सीता सभावही कर कायर अर महा भयंकर वनके दुष्ट जीवनितें कैसे जीवेगी ? जहां महा भयानक सर्पनिक समूह अर अल्पजल ऐसे सरोवर निनमें माने हायी कर्दमकरैं हैं अर जहां मृगनिक समूह मृगतृष्णाविणे जल जान वृथा दौड व्याकुल होय हैं, जैसे संसारकी मायाविषै रागकर रागी जीव दुखी होय अर जहां कौंछिकी रज के संग कर मर्केट अति चंचल होय रहे हैं पर जहां तृणामे सिंह व्याघ्र ल्यालियोंके समूह तिन की रसना रूप पल्लव लहलहाट कर हैं अर चिरन समान लालनेत्र जिनके ऐसे क्रोधायमान भुजंग फुक र करै हैं अर जहां तीव्र पवनके संचारकर क्षणमात्रविणे वृक्षनिके पत्रों के ढेर होय हैं अर महाअजगर तिनको विषरूप अग्निकर अनेक वृक्ष भस्म होय गये हैं अर माने हाथिनकी महाभयंकर गर्जना ताकर वह वन अति विकराल है अर वनके शूझरनिकी सेनाकर सरोवर मलिन जल होय रहे हैं, पर जहां ठौर २ भूमिशिप कांटे अर सांठे अर सांपोंकी वामी अर कंकर पत्थर तिनकर भूमि महासंकटरूप है अर डाभकी अणी सुईतेह अति पैनी हैं अर सूके पान फन परनकर उडे उडे फिरे हैं ऐसे महा अरण्यविषै--हे देव, जानकी कैसे जीवेगी, मैं ऐमा जान हूं क्षणमात्र हू वह प्राण राखिको समर्थ नाहीं । हे श्रेणिक, सेनापतिके वचन सुन श्रीराम अति विषादको प्राप्त भए, कैसे हैं वचन ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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