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________________ पद्मपुराण पुत्रीके समाचार कहते भये उससे पहिले राजाने भी रुदनके शब्द सुने, सुनकार कहता भया जिसका यह मनोहर रुदनका शब्द सुनिये सो कहो कौन है ? तब कई एक अग्रसर होय जायकर पूछते भये-हे देवि ! तू कोन है अर इस निर्जन वनविषे क्यों रुदन करई तो समान कोऊ और नाहीं तू देवी है अक नागकुमारी है अक कोई उत्तम नारी है तू महा कल्याणपिणी उत्तम शरीरकी धरणहारी तोहि यह शोक कहा हमको यह बड़ा कौतुक है। तब यह शन्त्रधारक पुरुषोंको देख त्रासको प्राप्त भई कांपे है शरीर जाका सो भयकर उनको अपने आभरण उतारकर देने लगी तब वे स्वामीके भयकरि यह कहते भये-हे देवी! तू को डर है शोकको तज धीरता भज आभूषण हमको काहेको देवे है तेरे ही रहो ये तोहि योग्य हैं-हे माता ! तू ह्विल को होग है विश्वास गह यह राजा वज्रजंघ पृथिवीविष प्रसिद्ध महा नरोत्तम राजनीतिकर मुक्त है पर सम्यकदर्शनरूप रत्न भूपणकर शोभित है। कैसा है सम्यकदर्शन ? जिस समान ओर रल नाही अविनाशी है अमोलिक है काहूसे हरा न जाय महा सुखका दायक शंकादिक मलरहित सुमेरु सारिखा निश्चल है । हे माता : जाके सम्यग्दर्शन होवे उसके गुण हम कहां लग वर्णन करें यह राजा जिनमार्गके रहस्यका ज्ञाता शरणागतप्रतिपालक है परोपकारमें प्रवीण महा दयावान महा निर्मल पवित्रात्मा निंद्यकर्मसं निवृत्त लोकोंका माता पिता समान रक्षक, महादातार जीयोकी रक्षाविप सावधान दीन अनाथ दुर्वल देह धारियों को माता समान पाले है कार्यकी सिद्धि करणहारा शत्ररूप पर्वतनिको वज्र समान है। शास्त्र विद्याका अभ्यासी परधनका त्यागी पर स्त्रीको माता बहिन बेटी समान मान है अन्याय मार्गको अजगरसहित अन्धकूप समान जाने है, धर्मविपे तत्पर अनुरागी संसारके भ्रमण से भयभीत सत्यवादी जितेंद्रिय है याके समस्त गुण जो मुखये कहा चाहे सो भुजानिकर समुद्रको तिरा चाहे है। ये बात बज्रजंघके सेवक कहे हैं, इसनेविणे ही राजा आप प्राय हाथी से उतर बहुत विनयकर सहज ही है शुद्ध दृष्टि जाकी सो सीताते कहता भया-हे वहिन ! वह वज्रसमान कठोर महा असमझ है जो तोहि ऐसे वनमें तजे अर तोहि तजते जाका हृदय न फट जाय । हे पुण्यरूपिणी ! अपनी अवस्थाका कारण कह, विश्वासको भज भयमत करे अर गर्भका खेद मत कर। तब यह शोककर पीडितचित्त बहारि रुदन करती भई। राजाने बहुत थीर्य बंधाया तत्र यह हंसकी न्याई अांसू डार गद् गद् वाणीत कहती भई-हे राजन् ! मो मंद भागिनी की कथा अत्यंत दीर्घ है यदि तुम मुना चाहो हो तो चित्त लगाय सुनो, मैं राजा जनककी पुत्री भामण्डलकी बहिन राजा दशरथके पुत्रकी बधू सीता मेरा नाम रामकी राणी राजा दशरथने केकईको वरदान दीया हुता सो भरतको राज्य देकर राजा तो वैरागी भये अर राम लक्ष्मण वनको गए सो मैं पति के संग वनमें रही, रावण कपटसे मोहि हर लेगया, ग्यारहवे दिन मैंने पति की वार्ता गुन भोजन किया पति सुग्रीवके घर रहे बहुरि अनेक विद्याधरनिको एकत्र कर आकाशके मार्ग होय समुद्रको उलंघ लंका गये, रावणको युद्ध में जीत मोहि ल्याये बदुरि राजरूप कीचको तज भरत तो बैरागी भये । कैसे हैं भरत ? जैसे ऋषभदेवके भरत चक्रवर्ती तिन समान हैं उपभा जिनकी, सो भरत तो कम कलंकरहित परमधामको प्राप्त भये अर केकई शोकरूप अग्निकर आतापको प्राप्त भई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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