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________________ पभ-पुराण अज्ञानी शिलाको उपाडकर चन्द्रमाकी ओर वगाय (फेके) बहुरि मारा चाहे सो सहन ही आप निस्सन्देह नाराको प्राप्त होय है जो दुष्ट पराये गुणनिको न सहसके अर सदा पराई निंदा करें हैं सो पापकर्मी निश्वयसेती दुर्गतिको प्राप्त होय हैं जब ऐसे वचन लक्ष्मणने कहे तब श्रीरामचन्द्र कहते भए-हे लक्ष्मण ! तू कहे है सो सब सत्य है तेरी बुद्धि रागद्वेपरहित अति मध्यस्थ महाशोभायमान है परन्तु जे शुद्ध न्यायमार्गी मनुष्य हैं वे लोकविरुद्ध कार्यको तजें हैं जाकी दशोंदिशामें अकीर्तिरूप दावानलकी ज्याला प्रज्वलित है ताको जगतमें कहा सुख पर कहा ताका जीतव्य ? अनर्थ का करणारा जो अर्थ ताकर कहा अर विषकर संयुक्त जो औषधि ता. कर कहा ? अर जो बलवान होय जीवनिकी रक्षा न करे शरणागतपालक न होय ताके बलकर कहा पर जाकर आत्मकल्याण न होय ता आचरणकर कहा, चारित्र सोई जो आत्महित करे अर जो अध्यात्मगोचर आत्माको न जानै ताके ज्ञानकर कहा, अर जाकी कीर्तिरूपवधू अपवाद रूप बलवान हरै ताका जन्म प्रशस्त नाहीं ऐसे जीवन मरण भला, लोकापवादको बात तो दूर ही रहो, मोहि यह महा दोष है जो पर पुरुषने हरी सीता मैं बहुरि घर में लाया । राक्षस के भवन में उद्यान तहां यह बहुत दिन रही अर ताने दूती पठाय मनवांछित प्रार्थना करी पर समीप आय दष्ट दृष्टि कर देखी अर मनमें आये सो वचन कहे ऐसी सीता मैं घरमें ल्याया या समान अर लजा कहा, सो मूहोंसे कहा न होय, या ससारकी मायामें मैं हु मूह भया। या भांति कहकर आज्ञा करी जो शीघ्रही कृतांतबक्र सेनापतिको बुलायो, यद्यपि दो वालकनि के गर्भ सहित सीता है तोह याहि तत्काल मेरे घरते निकासो यह आज्ञा करी। तब लक्ष्मण हाथ जोड नमस्कारकर कहता भया-हे देव ! सीताको तजना योग्य नाी, यह राजा जनक की पुत्री मा शीलवती जिनधर्मिणी कोमल वरणकमल जाके महा सुकुमार भोरी सदा सुखिया अोली कहां जायगी ,गर्भ के भारकर संयुक्त परम खेदको धरे यह राजपुत्री तिहारे तजे कोनो शरण जायगी अर आपने देखवे की कही सो देखिबेकर कहा दोष भया, जसे जिनराजके निकट चाया द्रव्य निर्माल्य होय है ताहि देखिए है परन्तु दोष नाही अर अयोग्य अभक्ष्य वस्तु आंखिनिस देखिए हैं परन्तु देखे दोष नाही, अंगीकार किये दोष है ताते हे नाथ, मोपर प्रसन्न होवो, मेरी बीनती सुनो महा निर्दोष सीता सती तुममें एकाग्र है चित्त जाका ताहि न तजो तब राम अत्यन्त विरक्त होय क्रोधंमें प्रागए अर अप्रसन्न होय कही-लक्ष्मण अब कछू न कहना, मैं यह अब. श्य निश्चय किया शुभ होवे अथवा अशुभ होवे,निमानुपवन जहां मनुष्यका नाम न सुनिये वहां द्विती. यसहायरहित अकेली सीताको तजो अपने कर्मके योगकर जीवो अथवा मरो एक क्षणमात्र हू मेरे देशमें अथवा नगरमें काहू के मन्दिरमें मत रहो वह मेरी अपकीर्तिको करणारी है, कृतांतवकको बुलाया सो चार घोड़े का रथ चहा बडी मेना सहित जाका बंदो विरद बखाने हैं लोक जप जय कार करें हैं सो राजमार्ग होय आया जापर छत्र फिरता अर धनुष चढाय ववसर पहिरे कुएड न पहिरे ताहि या विधि आवता देख नगर के नर नारी अनेक विकल्पकी वार्ता करते भए । आज यह सेनापति शीघ्र दौडा जाय है भो कौन पर बिदा होयगा आप कोन पर कोप भए हैं, आज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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