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________________ चानवेवा पर्न ४६१ में भी भ्रमते फिरें हैं जिन श्राज्ञा पराङमुख ज्ञानरहित निराचारी श्राचार्यकी आम्नायसे रहित हैं, जिन श्राज्ञा पालक होंय तो वर्षामें बिहार क्यों करें, सो यह तो उठगया थर याके पुत्रकी बघूने प्रति भक्तिकर प्रामुक आहार दिया सो मुनि आहार लेय भगवानके चैन्यालय आया जहां द्युति भट्टाकर विराजते हुते, ये सप्तर्षि ऋद्धि के प्रभावकर धरती से चार अंगुल अलिप्त चले आये र चैत्यालय में धरतीवर पग धरते आये, आचार्य उठ खडे भये श्रति आदरसे इनको नमस्कार किया अर जे द्युतिभट्टारकके शिष्य हुने तिन सबने नमस्कार किया बहुरि ये सप्त तो जिन बंदनाकर आकाशके मार्ग मथुरा गये इनके गये। पीछे अदत्त सेठ चैन्याजयति तब द्युतिभट्टारकने कही, सप्तमहर्षि महायोगीश्वर चारणमुनि यहां आये हुते तुमने हूँ वह बंदे हैं वे महा पुरुष महातपके धारक हैं चार महीना मथुरा निवास किया है श्रर चाहे जहां आहार लेजांय आज अयोध्यामें आहार लिया चैत्यालय दर्शन कर गये, हमसे धर्मचर्चा करी, वे महा तपोधन गगनगामी शुभ चेष्टा धरणहारे परम उदार ते मुनि बन्दिवे योग्य हैं। तब वह श्रावकनिविषै 'अग्रणी आचार्य के मुख से चारण मुनिनिकी महिमा सुनकर खेदखिन्न होय पश्चाताप करना भया । धिक्कार मोहि, मैं सम्यक्दर्शन रहित वस्तुका स्वरूप न पिछाना, मैं अत्याचारी मिथ्यादृष्टि मोसमान रथम कौन, वे महा मुनि मेरे मंदिर आहार को आये अर मैं नवधा भक्तिकर आहार न दिया । जो साधुको देख सन्मान न करे श्रर भक्तिकर अन्न जल न देय मो मिथ्या दृष्टि है, मैं पापी पापात्मा पापका भाजन महा निन्द्य मो समान और अज्ञानो कौन, मैं जिनवाणीमे विमुख, अब मैं जौ लगः उनका दर्शन न करू तौलग मेरे मन का दाह न मिटे, चारण मुनिनि की तो यही रीति हैं चौमासे निवास तो एक स्थान करें अर आहार अनेक नगरीमें कर श्रावें, चारण ऋद्धिके प्रभाव, कर अंगसे जीवोंको बाधा न हो । 1 अथानन्तर कार्त्तिक की पूनो नजीग जान सेठ अर्हदत्त महासम्यकदृष्टि नृपतुल्य विभूति जाके, अयोध्या मथुराको सर्वकुटुंब सहित सप्त ऋषिके पूजन निमित्त चला, जाना है मुनिनिका माहात्म्य जाने अर अपनी बारम्बार निन्दा करै है रथ हाथी पियादे तुरंगनिके असवार इत्यादि बडी सेनासहित योगीश्वरनिकी पूजाको शीघ्रही चला, बडी विभूति कर युक्त शुभ ध्यानविषै दत्पर कार्तिक सुदी सप्तमीके दिन मुनिनके चरणनिविषै जाय पहुंचा। वह उत्तम सम्यक्त्वका धारक विधिपूर्वक मुनिचन्दना कर मथुरा में अतिशोभा करावता भया, मथुरा स्वर्ग समान सोहती भई, यह वृत्तांत सुन शत्रुघ्न शीघ्र ही महा तुरंग चढा सप्त ऋनिके निकट आया अर शत्रुघ्न की माता सुप्रभा भी मुनिनिकी भक्तिकर पुत्रके पीछे ही आई अर शत्रुघ्न नमस्कार कर मुनिनि के मुख धर्म श्रवण करता भया, मुनि कहते भए - हे नृप ! यह संसार असार है वीतरागका मार्ग सार है, जहां श्रावकके बारह बा कहे, मुनिके अठाईस मूल गुण कहे, मुनीनिको निर्दोष आहार लेना अकृत अकारित रागरहित प्रासु चाहार विधिपूर्वक लीये योगीश्वरोंके तपकी भया - - हे देव आपके आये या नगरतें मरी गई, रोग सुभित भया सत्र साता भई प्रजाके दुख गए सर्व समृद्धि कोई दिन आप यहां ही तिष्ठो ! For Private & Personal Use Only वारी होय तब वह शत्रुघ्न कहता गए दुर्भिक्ष गया, सब विघ्न गए, भई जैसे सूर्य उदयतें कमलनी फूलै, Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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