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________________ ४८६ पद्म-पुराण स्थल जाका सिर पर मुकुट धरे मनोहर कुण्डल पहिरे शरद के सूर्य समान महा तेजस्वी अखंडित गति जाकी शत्रुके सन्मुख जाता अति सोहता भया जैसे गजरात्र पर जाता मृगराज गोई अर अग्नि के पत्रको जलायै वैसे मधुके अनेक योवा क्षणमात्रमें ध्वंस किए, शत्रुघ्न के सन्मुख मधुका कोई योधा न ठहर सका जैसे जिनशासन के पंडित स्यादवादी तिनके यन्मुख एकवारी न ठहर सके, जो मनुष्य शत्रुघ्नसे युद्ध किया चाहे सो तत्काल विनाशको पात्र जैसे सिंहके आगे मृग । मधु की समस्त सेना के लोक प्रति व्याकुल होय मधु शरण आये सो घुमाभट शत्रुघ्न को सन्मुख आता देख शत्रुघ्नकी धधजा बेटी घर शत्रुघ्नने वा निदर तक स्थ | तब मधु पर्वत समान जो गरुडेंद्र गज तापर चढ कोवकर प्रज्वलित है शरीर जाका शत्रुघ्नको निरंतर बागनिकर याच्छादने लगा जैसे महामेव सूर्यको श्राच्छादे सो शत्रुघ्न महा शूरवीरता बाघ छेद डारे र मधुका वखतर भेदा जैसे अपने घर कोई पाहुना र ताके भले मनुष्य भली भांति पाहुन गति करें तैसे शत्रुघ्न मधुकी रणमें शस्त्रनिवर पाहुणागति करता भया । अथानन्तर मधु महा विवेकी शत्रुनको दुर्जय जान आपको त्रिशूल आयुधसे रहित जान पुत्र की मृत्यु देख पर अपनी आयु भी अल्प जान मुनिनका वचन चितारता भवा - अहो जगत्का समस्त ही आरंभ महा हिंसारूप दुखका देनहारा सर्वथा ताज्य है यह क्षणभंगुर संसार चरित्र तामें मूडजन राचे या संसारमें धर्म ही प्रशंसा योग्य है पर अधर्मका कारण अशुभ कर्म प्रशंसा योग्य नाही महा निंद्य यह पाप कर्म नरक निमोदका कारण हैं, जो दुर्लभ मनुष्य देह को पाय धर्म में बुद्धि नाही घरे है सी प्राणी मोह कर्म कर ठगाया अनन्त भवन करे है । मैं पापीने संसार असारको सार जाना, क्षणभंगुर शरीरको ध्रुव जाना आदि न किया। यतादमें प्रचरता, रोग समान ये इन्द्रियन के भोग भले जान भोगे, जब में स्वाधीन हुता तब मोहि सुबुद्धि न श्रई, अब अन्तकाल श्राया अब कहा करू ं, घर में बाग लागी त समय तलाब खुदवाना कौन अर्थ ? र सर्प डसा तो समय देशांतरसे मंत्राी बुलवाना कर दू देश मणि औषधि मंगवाना कौन अर्थात सर्व चिंता तज निरकुल होय अपना मन समाधान में ल्याऊ यह विचार वह वीरवीर घावकर पूर्व हाथी चहा ही भाव होना भए, अरहन नि आचार्य उपाध्याय साधुनि को मन कर वचनकर कायकर वारंवार नमस्कार कर और अरहंत निद्ध साधु तथा केवली प्रणीत धर्म यही मंगल हैं यही उत्तम है इसका मेरे शरण है। पंद्र कर्मभूमि तिनमें भगवान अरहन्त देव होय हैं वे मेरे हृदय में तिष्ठ । मैं बारंबार नमस्कार करू' हूं अब मैं यावज्जीव सर्व पाप योग तजे, चारों बाहार तजे, जे पूर्व पाप उपार्ज हुने तिनकी निन्दा करू हूं अर सकल वस्तुका प्रत्याख्यान करू हूं अनादि काल या संवार वन जो कर्म उपार्जे हुने ते मेरे दुःकृत मिथ्या हो । भावार्थ- मुझे फल मत देहु, अब मैं तत्वज्ञान में विष्ठा तजवे योग्य जो रागादिक तिनको त हूं अर लेयचे योग्य जो दिजमाव तिनको लेऊ' हूं, ज्ञान दर्शन मेरे स्वभाव ही हैं सो मोसे अमेय हैं कर जे शरीरादिक समस्त पदार्थ कर्मके Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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