SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ teratri प ४७३ सिनी देवीनि समान सैकडों राणिनिसे युक्त चलीं पर सुग्रीवादि समस्त विद्याधर महाविभूति संयुक्त चले, केवली का स्थानक दूरहोतें देख रामादिक हाथ उतर आगे गए। दोनों हाथ जोड प्रणामकर पूजा करी, आप योग्य भूमिमें विनयतें बैठे तिनके वचन समाधानवित्त होय सुनते भए, ते वचन पैराग्य मूल रागादिकके नाशक क्योंकि रागादिक संसार के कारण श्रर सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्षके कारण हैं केवली की दिव्य ध्वनि में यह व्याख्यान भया । श्रवरूप श्रावकका धर्म अर महाव्रतरूप यतिका धर्म यह दोनोंही कल्याणके कारण हैं यतिका धर्म साचात् निर्वाणका कारण अर श्रावकका धर्म परम्पराय मोक्षका कारण हे गृहस्थका धर्म पारम्भ अल्प परिग्रहको लीये कछू सुगत है अर यतिका धर्म निररम्भ निपरिग्रह अति कठिन महा शूरवीरनिही तें सधे है यह लोक अनादि निधन जाकी आदि अन्त नाहीं ताि यह प्राणी लोभकर नानाग्रकार कुनिमें मदुःख को पावें हैं संसार का तारक धर्म ही है, यह धर्म नामा परम मित्र जीवोंका मह हितु है जिस धर्मका मूल जीवदयाकी महिमा कहिवेमें न वे ताके प्रसादसे प्राणी मनवांछित सुख पावे हैं धर्म ही पूज्य हैं जे धर्मका साधन करें ते ही पंडित हैं यह दयामूल धर्म महाकल्याणका कारण जिनशासन विना अन्यत्र नाहीं जे प्राणी जिन प्रणीत धर्म में लगें ते त्रैलोक्य के अग्र जो परम धाम है वहां प्राप्त भए यह जिनधर्म परम दुर्लभ है, या धर्मका मुख्यफल तो मोक्षही है अर गौणफल स्वर्ग इन्द्राद अर पाताल में नागेन्द्रपद पृथिवी यदि नरेन्द्रपद यह फल हैं इस भांति केवलाने धर्मका निरूपण किया, तब प्रस्ताव पाय लक्ष्मण पूछते भए - हे प्रभो ! त्रैलोक्यम्ण्डन हाथी गन्न उपाडि क्रोधको प्राप्त भया बहुरि तत्काल शांतभाव को प्राप्त भासो कौन कारण १ तब केवली देशभूषण कहते भए, प्रथम तो यह लकनिकी भीड देख मदोन्मत्तता ratarat ma aा बहुरि भरतको देख पूर्वभव चितार शतभावको प्राप्त भया । चतुर्थ कालके श्रादिध्या नाभिराजाके मरु देवीके गर्भ में भगवान् ऋषभ उपजे पूर्णभव में षोडश कारण भावना भाय त्रैलोक्यको आनन्दका कारण तीर्थकर पद उपार्जा । पृथिवीमें प्रगट भए, इंद्रादिक देवनिन जिनके गर्भ अर जन्मकल्याणक कीए सो भगवान् पुरुषोत्तम तीन लोक कर नमस्कार करने योग्य पृथिवीरूप पत्नी के पति भए । कैसी है पृथिवी रूप पत्नी ? विध्याचल गिरि वेई हैं स्तन जाके र समुद्र हैं कटिमेखला जाकी सो बहुत दिन पृथिवीका राज्य कीया तिनके गुण केवल विना भर कोई जान समर्थ नाहीं, जिनका ऐश्वर्य देख इन्द्रादिक देव आश्चर्य को प्राप्त भए । एक समय नीलांजना नामा अप्सरा नृत्य करती हुती सो विलाय गई ताहि देख प्रतिबुद्ध भए ते भगवान् स्वयं बुद्ध महामहेश्वर तिनकी लौकांतिक देवनिने स्तुति करी । ते जगत् गुरु भरत पुत्र को राज्य देय वैरागी भए । इन्द्रादिकदेवनिने तप कल्याणक किया, तिलक नामा उद्यान में महावत घरे तब से यह स्थान प्रयाग कछाया भगवान्‌ने एक हजार वर्ष तपकिया सुमेरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy