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________________ ४४२ पद्म-पुराण कोपकर चक्रको भ्रमाय रावणपर चलाया, वज्रपातके शब्द समान भयंकर है शब्द जाका अर प्रलयकाल के सूर्य समान तेज को घरे चक्र पर आया तब रावण बाणनिकर चक्रके निवारवैको उद्यमी भया बहुरि प्रचंड दण्ड कर शीघ्रग मी वजू बाणकर चक्र के निवारका यत्न किया तथापि रावण का पुण्य क्षीण भया सो चक्र न रुका नजीक आया तब रावण चन्द्रहास खड्ग लेकर चक्र समीप आया चक्के खड्गकी दई सो अग्निके कण निकर काकाश प्रज्वलित भया खड्गका जोर चक्रार न चला, सन्मुख विष्ठा सण महाशूरवीर राक्षमनिका इंद्र ताका चक्रने उरस्थल भेदा सो पुरव क्ष कर अंजनगिरि समान रावण भूमिमें पडा, मानों स्वर्गसे देव चया, अथवा रतिका पति पृथिवी में पडा ऐसा सोहता मया मानों वीररसका स्वरूप ही है, चढ रही है जाकी से हैं होठ जाने स्वामीको पडा देख समुद्रसमान है शब्द जावा ऐसी सेना भागिवेको उद्यमी भई, ध्वजा छत्र कहे कहे फिरे, समस्त लोक रावण के विह्वल भए विलाप करते भागे जाय हैं कोई कहे हैं को दूरकर मार्ग देहु पीछेने हाथी आवे है कोई कहे हैं विमानको एक तरफकर र पृथिवीका पति पडा, अर्थमा महाभयकर कम्पायमान वह ता पर पडे दह ता पर पडे तब सबको शरखरहित देव भामण्डत सुग्रीव हनुमान रामकी आज्ञा से कहते भए -भर मत करो भय मत करो वीर्य बचाया थर वस्त्र फेरया काहूको भय नाहीं मृत समान कानोंको प्रिय ऐसे वचन सुन सेनाको विश्वास उपजा । यह कथा गौतम गणधर राजा श्रोणकयूं कहे हैं हे राजन् ! रावण ऐसा महा विभूतिको मोगे समुद्र पर्यन्त पृथिवी का राजकर पुण्य पूर्ण भए अन्त दशाकी प्राप्त भया । तातें ऐसी लक्ष्मीको विकार है । यह राज्यलक्ष्मी महाचंचल पापका स्वरूप सुकृतके समागम के आशाकर वर्जित ऐसा मनमें विचार कर ही बुद्धिजन हो तप ही है थन जिनके ऐसे मुनि हवी । कैस हैं मुनि तपोवन सूर्यसे अधिक है तेज जिनका मोह तिमिरको हरे हैं ॥ इति श्रारविशेणाचार्यविरचित महापद्मगु गण संस्कृत ग्रन्थ, ता की भाषा बचनिकाविषै रावणका बध वर्णेन करनवाला छिहत्तरवां पर्व पर्ण भया ।। ७६ ।। अथानन्तर विभीषण ने बडे भाई को पड़ा देख महा दुःखका भरा अपने घातके अर्थ हुई में हाथ लगाया सोयाकों मरणकी कगहरी मूत्र आयगई चेटाकर रहित शरीर हो गया बहुरि सचेत होय महादाहका भरा मरनेको उद्यमी भया तत्र श्रीरामने रथसे उतर हाथ पकडकर उरसे लगाया धीर्य बंधाया फिर मूर्छा खाय पडा अचेत होय गया श्रीरामने सचेत किया तब सचेत होय विलाप करता भया जिसका विलाप सुन करुणा उपजे, हाय भाई उदार क्रियावन्त सामं- के पति महाशूरवीर रणधीर शरणागतपालक महामनोहर ऐसी अवस्थाको क्यों प्राप्त भया ? मैं हितके वचन कहे सो क्यों न माने यह क्या अवस्था भई जो मैं तुमको चक्र विदारे पृथिवीविषै पडे देखूं हूं, देव विद्याधरोंके महेश्वर हे लंकेश्वर ! भोगोंके भोक्ता पृथ्वीमें कहा पौढे ९ महाभोगोंकर लडाया हैं शरीर जिनका यह सेज आपके शयन करने योग्य नाहीं, हे नाथ ! उठो सुन्दर बच नके वक्ता मैं तुम्हारा बालक मुझे कृपाके वचन कहो, हे गुणाकर कृपाधार मैं शो के समुद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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