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________________ पैंसठत्रां पव T 1 एक अरदास नामा विद्याधर सुमेरुकी बन्दना करके जावे था सो आय निकसा सो चक्रवर्ती की पुत्री को देख पिता के स्थानक लेजाना विचारा, संलेषणा के योगकर कन्याने मने किया । तब अरदास शीघ्री चक्रवर्ती पर जोय चक्रवर्तीको लेय कन्या पै श्राया सो जा समय चक्रवर्ती या ता समय एक सर्प कन्याको भखे था सो कन्याने पिताको देख अजगर को अभयदान दिया अर आप समाधि धारण कर शरीर तज तीजे स्वर्ग गई, पिता पुत्री की यह अवस्था देखकर बाईस हजार पुत्रनि सहित वैराग्यको प्राप्त होय मुनि भया, कन्याने अजगरसे क्षमाकर अजगरको पीडा न होने दई सो ऐसी दृढता ताहीसू बनै अर वह पुनर्वसु विद्याधर अनंगशराको देखता भया मो न पाई तब खेदखिन्न होय द्रुमसेन मुनिके निकट मुनि होय महा तप किया सो स्वर्ग देन होय महासुन्दर लक्ष्मण भया, अर वह अनंगशरा चक्रवर्तीकी पुत्री स्वर्गलोकतें चयकर द्रोणमेव विशल्या भई अर पुनर्वसुने ताके निमित्त निदान किया हुता, सो अव लक्ष्मण याहि बरेगा, यह विशल्या या नगरविषै या देश में तथा भरतक्षेत्र में महा गुणवन्ती है पूर्वभवके तपके प्रभावकर महा पवित्र है ताके स्नानका यह जल है तो सकल विकार को हरै है, याने उपसर्ग सहा महा तप किया ताका फल है याके स्नान के जलकर जो तेरे देश में वायु से विषम विकार उपजा हुता सो नाश भया । ये मुनिके वचन सुन भरतने मुनिसे पूछी- हे प्रभो ! मेरे देश में सर्व लोकोंको रोगविकार कौन कारण से उपजा ? तब मुनिने कहा- गजपुर नगरतें एक व्यापारी महा धनवन्तविन्ध्यनामा सो रासभ ( गधा ) ऊंट भैंसा लदे अयोध्या में आया अर ग्यारह महीना अयोध्या में रहा ताके एक मैंमा सो बहुत बोझ के लगनेसे घायल हुआ, तीव्र रोगके भारसे पीडित या नगर में मूत्रा सो अकामनिर्जराके योग कर अश्वकेतु नामा वायुकुमार देव भया जाका विद्यावर्त नाम, सो अवधिज्ञानसे पूर्वभवको चितारा कि पूर्वभव विषै मैं भैंसा था पीठ कट रही हुती र महा रोगों कर पीडित मार्ग विषै कीच में पड़ा हुता सो लोक मेरे रिपर पांव देय देय गए । यह लोक महानिर्दई अब मैं देव भया सो मैं इनका निग्रह न करू तो मैं देव काका ? ऐसा विचार अयोध्या नगरविषै अर सुकौशल देशमें वायु रोग विस्तारा सो समस्त रोग विशल्याके चरणोदकके प्रभाव से विलय गया बलवान से अधिक बलवान है सो यह पूर्णकथा मुनिने भरत से कही र भरतने मोसे कही सो मैं समस्त तुमको कही विशल्याका स्नान जल शीघ्र ही मंगावो लक्ष्मण के जीवनेका अन्य यत्न नाहीं । या मोति विद्य धरने श्रीराम से कहा सो सुनके प्रसन्न भये । गौतमस्वामी कहे हैं कि - हे श्रेणिक ! जे पुण्याधिकारी हैं तिनको पुरुषके उदयकरि अनेक उपाय मिले हैं। अहो महंतजन हो, तिन्हें आपदाविषै अनेक उपाय सिद्ध होय हैं ॥ इति श्रीरविणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनकाविषै विंशल्याका पूर्णभव वर्णन करनेवाला चौसठगां पर्ग पूर्ण भया ॥ ६४ ॥ अथानन्तर ये विद्याधरके वचन सुनकर रामने समस्त विद्याधरनि सहित ताकी अति प्रशंसा करी पर हनुमान भामंडल तथा अंगद इनको मंत्रकर अयोध्या की तरफ बिदा किए । ये चणमात्रमें गए जहां महाप्रतापी भरत विराजे हैं सो भरत शयन करते हुते तिनको रागकर ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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