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________________ सत्तावना पर्ण ३८६ अंथकार नाशको प्राप्त होय है सो उदार तेजका धनी ताके आगे कौन ठहर सके जो जीतव्यकी बांछा तजे सोही वाके सन्मुख होय, या भांति अनेक प्रकार, रग द्वेषरूप वचन सेनाके लोग परस्पर कहते भये । दोनों सेनानिमें नाना प्रकारकी वार्ता लोकनिके मुख होती भई, जीनों के भाव नानाप्रकारके हैं, राग द्वपके प्रभावसे जीव निजकर्म उपार्जे हैं सा जैमा उदय होय है तैसे ही कार्यमें प्रवृते हैं जैसे सूर्य उदय उद्यमी जीवों को नाना कार्यमें प्रवर्ताव है तैसे कर्म का उदय जीवोंके नानाप्रकारके भाव उपजावे है। इति श्रीरविषेणोचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै दोऊ कटकनिकी संख्याका प्रमाण वर्णन करनेवाला छप्पनवां पर्व पूर्ण भया ।। ५६ ।। अथानन्तर पर सेनाके समीपको न सह सके ऐसे मनुष्य वे शूरपनेके प्रगट होनेसे अति प्रसन्न होय लडनेको उद्यमी भए । योधा अपने घरोंसे विदा होय सिंह सारिखे लंकासे निकसे। कोईयक सुभटकी नारी रणसंग्रामका वृत्तांत जान अपने भरतारके उरसे लग ऐसे कहती भई हे नाथ ! तिहारे कुल की यही रीति है जो रणसंग्रामसे पीछे न होंय अर जो कदाचित तुम युद्धसे पीछे होवोगे तो मैं सुनतेही प्राणत्याग करूगी । योधाओंके किंकरोंको स्त्रियों को कायरोंकी स्त्रिये धिक्कार शब्द कहें या समान और कष्ट कहा ? जो तुम छाती घाव खाय भले दिखाए पीछे आवोगे तो घाव ही श्राभूषण है पर टूट गया है वक्तर अर करे है अनेक योथा स्तति या भान्ति तुमको मैं देखूगी तो अपना जन्म धन्य गिगी अर सुई के कमलोंसे जिनेश्वरकी पूजा कराऊंगी । जे महायोथा रणमें सन्मुख होय भरणको प्राप्त होंय तिनका ही मरण अन्य है अर जे युद्धसे पर ङ मुख होय धिक्कार शब्दसे मलिन भए जीवे हैं तिनके जीवन से कहा ? अर कोईयक सुभटानी पतिसे लिपट या भान्ति कहती भई जो तुम भले दिखायर आवोगे तो हमारे पति हो पर भागकर आवोगे तो हमारे लिहारे सम्बन्ध नाहीं पर कोईयक स्त्री अपने पतिसे कहती मई-हे प्रभो ! तिहारे पुराने घाव अब विघट गए तात नवे घाव लगे शरीर अति शोभे वह दिन होय जो तुम वीरलक्ष्मीको वर प्रफुल्लितवदन हमारे आयो अर हम तुमको हर्षसंयुक्त देखें तिहारी हार हम क्रीडामें भी न देख सकें तो युद्ध में हार कैसे देख सकें और कोई एक कहती भई कि हे देव, जैसे हम प्रेमकर तिहारा वदन कमल स्पर्श करे हैं तैसे वक्षस्थल में लगे घाव हम देखें तप अति हर्ष पावें अर के एक रौताणी अति नवाढा हैं परन्तु संग्राममें पतिको उद्यनी देख प्रौढाके भाव को प्राप्त भई और कोई एक मानवती घने दिनोंसे मान कर रही हुती सो पतिको रणमें उद्यमी जान मान तज पतिके गले लगी अर अति स्नेह जनाया, अर रणयोग्य शिक्षा देसी भई अर कोई एक कमलनयनी भरत रके वदनको ऊंचाकर स्नेहकी दृष्टिकर देखती भई अर युद्ध में दृढ करती भई अर कोईयक सामंतनी पतिके वक्षस्थल में अपने नखका चिन्हकर होनहार शस्त्रोंके घावनको मानों स्थानक करतो भई । या भांति उपजी है चेष्टा जिनके ऐसी रागी रौताणी अपने प्रीतमोंको नानाप्रकारके स्नेहकर वीर रसमें इंढ करती भई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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