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________________ तिरेपनवा पर्व का है, वैरियोंका न जानो। या भांति हनूमानने सम्बोधी और प्रतिज्ञा भी यही हुनी कि जो पतिके समाचार सुन तब भोजन करू सो समाचार आए ही तब सीता सब आचारमें विचषण महा साध्वी शीलबंनी दयावंती देशकाल की जाननेसारी आहार लेना अंगीकार करती मई। तब हनुमानने एक ईरा नामली स्त्री कुल रालिकाको आज्ञा करी जो शीघ्र ही श्रेष्ठ अन्न लायो अर हनूमान विभाषणके पास गया ताहीके भोजन किया और तासे कही सीताको भोजनकी तैयारी कराय आया हूँ और ईरा जहां डेरे हुते वहां गई सो चार मुहूर्त में सर्व सामिग्री लेकर आई दर्पण समान पृथिवीको चन्दनसे लीपा और महा सुगन्ध विस्तीर्ण निर्मल सामिग्री और सुवर्णादिकके भाजनमें भोजन थराय लाई । कैयक पात्र घृतके भरे हैं, कैयक चावलोंसे भरे हैं चावल कदके पुष्प समान उज्ज्वल और कैयक पात्र दालसे भरे हैं और अनेक रस नाना प्रकारके व्यंजन दूध दही महा स्वादरूप भांति भांतिका आहार सो सीता बहुत किया। संयुक्त रसोई कर ईरा आदि समीपवर्तियोंको यहां ही न्योते। हनुमानसे भाईका भाव कर प्रति वात्सल्य किया । महाश्रद्धासंयुक्त है अंकरण जाका ऐसी सीता महा पतिव्रता भगवानको नमस्कार कर अपना नियम समाप्त कर त्रिविध पात्रोंके भोजन करावनेका अभिलाषकर महा सुन्दर श्रीराम ति को हृदय में थार, पवित्र है अंग जाका, दिनमें शुद्ध आहार करती भई । सूर्य का उद्योत होय तब ही पवित्र मनोहर पुण्यका वढावनहारा आहार करना योग्य है रात्रिको नाही, सीता भोजन कर चुकी और कछु एक विश्राम को प्राप्त भई तब हनुमानने नमस्कार कर विनती करी-हे पतिव्रते ! हे पवित्र, हे गुणभूषणे, मेरे कांधे चढो और समुद्र उलंघ क्षण मात्रमें रामके निकट ले जाऊ । तिहारे ध्यानमें तत्पर महा विभव संयुक्त जे राम तिनको शीघ्र ही देखो तिहारे मिलाप कर सबहीको आनन्द होय तब सीता रुदन करती कहती भई-हे भाई, पतिकी आशा विना मेरा गमन योग्य नहीं, जो पूछी कि तू विना बुलाये क्यों आई तो मैं कहा उसर दंगी तातें रावणने उपद्रव तो सुना होयगा सो अब तुम जावो तोहि यहां विल । उचित नाहीं। मेरे प्राणनाथ के समीप जाय मेरी तरफसे हाथ जोड नमस्कार कर मेरे मुखके वचन या भांति कहियो-हे देव एक दिन मोपहित आपने चारण मुनिकी वंदना करी, तहा स्तुति करी पर निर्मल जलकी भरी सरोवरी कमलों कर शोभित जहां जलक्रीडा करी ता समय महा भयंकर वनका हाथी अाया सो वह महा प्रवल आपने क्षणमात्रमें वश कर सुन्दर क्रीडा करी । हाथी गवरहित निश्चल किया अर एक दिन नन्दन वन समान वनमें मैं वृक्षकी शाखाको नवाती क्रीडा करती हती सो भ्रमर मेरे शरीरको आय लगे सो आपने भति शीघ्रता कर मुझे भुजासे उठाय लई अर आकुलता रहित करी और एक दिन सूर्य उद्योत समयमें आपके समीप सरोवरके तट तिष्ठती थी तब आप शिक्षा-देयवेके काज कछू एक मिसकर कोमल कमल नालकी मेरे मधुरसी दीमी अर एक दिन पर्वतपर अनेक जातिके वृक्ष देख मैं आपको पूछी-हे प्रभो, यह कौन जातिक वृक्ष हैं महा मनोहर । तब आप प्रसन्न मुखकर कही-हे देवि, ये नंदनी वृक्ष हैं अर एक दिन कर. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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