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________________ अडतालीसा पर्ण अथानन्तर ये सब विद्याधर सुग्रीवकी आज्ञा सिरपर धरकर हर्षित भए सर्वही दिशानिको शीघ्र ही दौड़े, सबही विचारें हम पहिली सुध लावे तासो राजा अति प्रसन्न हो अर भामण्डल को हू खबर पठाई जो सीता हरी गई ताकी सुध लेबो, तब भामण्डल बहिनके दुःख कर अतिही दुखी भया, हेरनेका उद्यम किया अर सुग्नीव आप भी ढूढनेको निकमा सो जोतिष चक्रके ऊपर होय विमानमें बैठा देखता भया, दुष्ट विद्याधरनिके नगर सर्व देखे सो समुद्रके मध्य जम्बूद्वीप देखा वहां महेंद्र पर्वतपर आकाशसे सुग्रीव उतरा तहां रत्न गटी तिष्ठे था सो डरा जैसे गरुडते सर्प डरे बहुरि विमान नजीक आया तब रत्न जटीने जाना कि यह सुग्रीव है, लंकापतिने क्रोधकर मोपर भेजा सो मोहि मारेगा. हाय ! मैं समुद्रमें क्यों न डब मूवा ? या अन्तर द्वीप में मारा जाऊंगा, विद्या तो रावण मेरी हर लेय गया अब प्राण हरने याहि पठाया, मेरी यह वांछा हुती जैसे तैसे भामण्डल पर पहुँचूं तो सर्व कार्य होय सो न पहुंच सका यह चितवन करे है इतनेमें ही सुग्रीव आया मानो दूसरा सूर्य ही है, द्वीपको उद्योत करता पाया सो या वनकी रजकर धूसरा देख दया कर पूछता भया-हे रत्नमटी ! पहिले तू विद्या कर संयुक्त हुता अब हे भाई! तेरी कहा अवस्था भई ? या भांति सुग्रीव दयाकर पूछा सो रत्नजटी अत्यन्त कंपायमान कछु कह न सके । तब सुग्रीव कहीं-भय मत कर । अपना वृत्तांत कह । बारम्बार धैर्य बंधाया, तब रत्नजटी नमस्कार कर कहता भया-रावण दुष्ट सीताको हरण कर लेजाता हुता सो साके पर मेरे परस्पर विरोध भया, मेरी विद्या छेद डारी, अब मैं विद्यारहित जीवितमें संदेह चिन्तावान् तिष्ठे था सो हे कपिवंशके तिलक ! मेरे भागते तुम्न आए। ये वचन रत्नजटी के सुन सुग्रीव हर्पित होय ताहि संग लेय अपने नगरमें श्रीराम पै लाया सो रत्नजटी राम लक्ष्मणसों सबके समीप हाथ जोड नमस्कार कर कहता भया-हे देव ! सीता महासती है ताको दुष्ट निर्दई लंकापति रावण हर लेय गया सो रुदन करती विलाप करती विमानमें बैठी मृगी समान न्याकुल मैं देखी, वह बलवान् बलात्कार लिए जाता हुता सो मैंने क्रोधकर कहा--यह महासती मेरे स्वामी मामण्डलकी बहिन है तू छोड दे, सो वाने कोपकर मेरी विद्या छेदी, वह महाप्रबल जाने युद्ध में इन्द्रको जीता पकड लिया अर कैलाश उठाया, तीन खण्डका स्वामी सागांत पृथिवी जाकी दासी जो देवनिहूकरि जीता न जाय सो ताहि मैं कैसे जीतू ताने मोहि विद्यारहित किया। यह सकल वृत्तांत राम देवने सुनकर ताको उरसे लगाया अर बारम्बार ताहि पूछते भए। बहुरि राम पूछते भए-हे विद्याथरो ! कहो लंका कितनी दूर है ? तब वे विद्याधर निश्चल होय रहे, नीचा मुख किया, मुख की छाया और होय गई, कछु जुनाब न दिया, तब रामने उनका अभिप्राय जाना जो यह हृदयमें रावणते भय रूप हैं मन्द दृष्टि कर तिनकी ओर निहारे तब वे आनते भए हमको आप कायर जानो हो ! तब लज्जावान होय हाथ जोड सिर नवाय कहते भए. हे देव ! जाके नाम सुने हमको भय उपजे है. ताकी बात हम कहा कैसे कहें, कहां हम अल्प शक्तिके थनी और कहां वह लंकाका ईशर तातें तुम यह हठ छोडो अब वस्तु गई जानो अथवा तुम सुनो हो तो हम सब वृत्तांत कहें सो नीके उरमें थारो, लवणसमुद्र में राक्षस दीप प्रसिद्ध है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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