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________________ बियालीसा पर्व ३२६ लाया पर सुगंध पुष्प लाया बहुरि राम सहित जल क्रीडाका अनुगगी भया, कैमा है लक्ष्मण गुणनिकी खान है मन जाका, जैसी जलक्रीडा इंद्र नागेंद्र चक्रवनी करें, तैसी राम लक्ष्मणने करी, मानों वह नदी श्रीरामरूप कामदेवको देख रतिसमान मनोहररूप धारती भई । कैसी है नदी लहलहाट करती जे लहर तिनकी माला कहिए पंक्ति ताकरि मलित किये हैं श्वेत श्याम कमलनिके पत्र जाने अर उठे हैं झाग जामें भ्रमररूप हैं चूडा जाके पक्षिनिके जे शन्द तिनकर मानों मिष्ट शब्द करे है वचनालाप करे है । राम जलक्रीडाकर कमलनिके वन विगै छिप रहे बहुरि शीघ्र ही आए । जनकसुतासे जलकेलि करते भए । इनकी चेष्टा देख वनके तिर्यच हू और तरफसे मन रोक एकाग्र चित्त होय इनकी ओर निरखते भए । कैसे हैं दोऊ वीर ? कठोरतासे रहित है मन जिनका अर मनोहर है चेष्टा जिनकी, सीता गान करती भई । सो गानके अनुसार रामचन्द्र ताल देते भए। मृदंगनिकरि अति सुंदर राम जलक्रीडाविणे आसक्त अर लक्ष्मण चौगिरदा फिरे, कैसा है लक्ष्मण भाईके गुणनिविणे आसक्त है बुद्धि जाकी, राम अपनी इच्छा प्रमाण जलक्रीडाकर समीपके मृगनिको ग्रानंद उपजाय जलक्रड ते निवृत्त भए । महा प्रसन्न जे वनके मिष्ट फल सिनकर क्षुधा निवारण कर लतामंडपविणे तिष्ठे। जहां सूर्यका आताप नाहीं, ये देवनि सारिखे सन्दर नानाप्रकारकी सुन्दर कथा करते भए । सीता सहित अति आनन्दसे तिष्ठे । कैसी है सीता ? जटायके मस्तकपर हाथ है जाका तहो राम; लक्षणसू कहे हैं—हे भ्रात ! यह नानाप्रकारके वृक्ष स्वादु फलकर संयुक्त अर नदी निर्मल जल की भरी अर जहां लतानिके मण्डप अर यह दंड कनामा गिरि अनेक रत्ननिसे पूर्ण यहां अनेक स्थानक क्रीडा करनेके हैं तात या गिरिके निकट एक सुन्दर नगर बसावें अर यह वन अत्यन्त मनोहर और निते अगोचर, यहां निवास हर्षका कारण है । यहां स्थानककर हे भाई ! तू दोऊ मातानिके लायवेको जाहु वे अत्यन्त शोकवंती हैं सो शीघ्र ही लावहु अथवा तू यहां रह पर सीता तथा जटायु भी यहां रहें. मैं मातानिके ल्यायवेको जाऊंगा । तब लदमण हाथ जोड नमस्कार कर कहता भया-जो आपकी आज्ञा होयगी सो होयगा, तब राम कहते भए । अब तो वर्षा ऋतु आई अर ग्रीषम मत गई. यह वर्षाऋतु अति भयंकर है जाविषे समुद्र समानःगाजते मेघ घटानिके समूह विचरे हैं चालते अंजनगिरि समान, दशों दिशाविणे श्यामता होय रही है। बिजुरी चमके है, बगुमानिकी पक्ति विचर है अर निरंतर वादलनिके जल वरसे हैं जैसे भगवानके जन्म कल्याणकवि देव रत्नपारा वरसावें अर देख, हे भ्राता ! यह श्याम घटा तेरे रंग समान सुन्दर जलकी बंड वरसावे हैं जैसे तू दान की धारा बरसावै । ये वादर आकाशविणे विचरते बिजुरीके चमत्कार कर यक्त बडे बडे गिरिनिको अपनी थाराकर आछादते संते ध्वनि करते संते कैसे सोहे हैं जैसे तम पाँतवस्त्र पहिरे अनेक राजानिकी आज्ञा करते पृथिवीको कृपादृष्टिरूप अमृतकी वृष्टिकरि सींचते सोहो । हे वीर ! ये कैयक वादर पवनके वेगसे आकाशविण भ्रमें है जैसे यौवन अवस्थाविणे असं पमियोंका मन विषय-बासनाविर्ष भ्रमे, अर यह मघ नाजके खेत छोड वृथा पर्वतके. ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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