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________________ तेतीसर्वा पर्व २८३ है अर जिनेन्द्र मुनीन्द्र लिनसूत्र टार औरको नमस्कार नाहीं करे है सो ऐसा धर्मात्मा व्रत शील का थारक अपने आगे शत्रुरि पीडिन रहे तो अपने पुरुषार्थ कर कहा, अपना यही धर्म है जो दुखीका दुख निवारें, साधर्मीका तो अवश्य निवारें। यह अपरावरहित साधु-सेवामें सावथान महाजिनधर्मी जाके लोक जिनधर्मी ऐसे जवको पीडा काहे उपजे । यह निहोर ऐसा बलवान है जो याके उपद्ररते वज्रकर्णको भरत भी न बचाय सके ताते हे लक्षमण ! तुम इसकी शीघ्र सहायता करो, मिहोदर पै जाने पर बज्राचा उपद्रव मिटे सो करो, हम तुमको कहा सिखावें जो कहियो तुम मह बुद्धिमान, जेसे महामणि प्रभासहित प्रकट होय है वैसे तुन महाबुद्धि परा. क्रमको धर प्रस्ट भए हो। या भांति श्रीरामने भाईके गुण गाए तब भाई लजाकर नीचे मुख होय गए । नमस्कार कर कहते भए हे.भो ! जो आप आज्ञा करोगे सोई होगगा. महाविनयवान लक्षमण रामजी आज्ञा प्रमाण धनुष वाणलेय धरतीको कंपायमान करते संते शीघ्र ही सिंहोदर पै गए। कटकके रखवारे पूछने भए तुम कौन हो लक्षण कहीं मैं राजा भरतका दूत हूं, तव कटकमें पैठने दिया, अनेक डेरे उलंघ राजद्व रे गया । द्वारपाल राजासों मिलाया सो महा बलवान सिंहोदरको तृणसमान गिनता संता कहा भया–हे सिंहोदर ! अयोध्याका अधिपति भरत ताने यह आज्ञा करी है जो वृथा विरोधकर कहा ? वज्राणसे मित्रभाव करो, तब सिंहोदर कहता भया हे दुत ! तू राजा भालको या भांनि कहियो जो अपना सेक होय अर नियमार्गस रहित होय ताहि स्वामी समझाय सेगमें लावे, या में विरोध कहा? यह वज्रर्ण दुरात्मा मानी मायाचारी कृतघ्न मित्रनिका निंदक चाकरी चूक आलसी मूढ़ विनाचाररहित खोटी अभिलाषाका धारक मह बुद्र सजनतारहित है सो याके दोष तब मिटें जब यह मरणको प्राप्त होय अथवा राज्य रहित करू ताते तुम कछू मत कहो, मेरा सेवक है जो चाहूंगा सो करूंगा। तब लक्षमण बोले बहुत उत्तरों कर कहा-यह परमहितु है या सेक्कका अपराध क्षमा करो,ऐसा जब कहा तब सिंहोदर क्रोधकर अपने बहुत सामंतोंको देग्व गर्वको धरता संता उच्च स्वर कहता भया। जो यह बजकर्ण तो महामनी है ही परन्तु याके कार्यको आया जो तू मो भी महामानी है, तेरा तन अर मन मानों पाषाणते निरमाया है रंचमात्र हू नम्रता तोमैं नाही, तू भरतका मूढ सेवक है जानिये है जो भर के देश में तो सालिखे मनुष्य होवेंगे जैसे सीजती भरी हांडीमसे एक चावल काढकर नरम कठं.रकी परीक्षा करिए है तैसे एक तेरे देखवेकरि सबनकी बानिगी जानी जाय है, तब लक्ष्मण क्रोधकर कहते भए, मैं तेरी वाकी संधि करावेको पाया है तोहि नमस्कार करवेको न आया, बहुत कहने कहा ? थोडे हीमें समझ जावो । वजकर्ण संधि कर ले नातर मारा जायगा, ये वचन सुन सब ही सभाकं लोक क्रोधको प्राप्त भए । नाना. प्रकारके दुर्वचन कहते भए अर नानाप्रकार क्रोधकी चेशको प्राप्त भए । कैयक छूरी लेय कैयक कटार भाला तलवार गहकर थाके मारनको उद्यमी भए । हुंकार शब्द करते अनेक सामंत लक्ष्मणको बेढते भये, जैसे पर्वतको मच्छर रोके तैसे रोकते भए, सो यह धीर वीर युद्ध क्रिया विष पंडित शीघ्र क्रियाके बेचा चरण के घातकर तिनको दूर उड़ा दिए । कैयक गोडोंसे मारे कैयक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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