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________________ से नाहीं डरूहूं, हाय हाय हिंसा श्रारम्भादि अनेक जे पाप तिन कर लिप्त मैं राज्य कर कौन से घोर नरक में जाऊंग', कैमा है नरक, बाण पडा चक्रके आकार तीक्ष्ण पत्र हैं जिनके असे शाल्मलीवृक्ष जहां हैं अथवा अनेक प्रकार तियंचगति तारिणे जागा देखो जिन शास्त्र सारिखा महाज्ञानरूप शास्त्र ताहूको पाय करि मेरा मन पापयुक्त हो रहा है। निम्पह होयकर यतिका धर्म नाहीं धारे है सो न जानिए कौन गति जाना है असी कर्मनिकी नासनहारी जो धर्मरूप चिंता ताको निरन्तर प्राप्त हुआ जो राजा भरत मो जैन पुराणादि ग्रंथनिके श्रवणविणे भासक्त है सदैव साधुन की कथाविणै अनुरागी रात्रि दिन धर्ममें उद्यमी होता भया । इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भापा बचनिकाविषै दशरथका वैराग्य रामका बिदेश गमन भरतका राज्य बर्णन करनेवालो बच्चीसबा पर्ष पूर्ण भयो ॥ ३२ ॥ अथानन्तर श्रीरामचन्द्र लक्षमण सीता जहाँ एक तापसीका आश्रम है वहां गए। अनेक तापस जटिल नाना प्रकारके वृक्षनिके वकल पहिरे अनेक प्रकारका स्वादुफल तिनकर पूर्ण हैं मठ जिनके, वन विर्षे वृक्षसमान बहुत मठ देखे विस्तीर्ण पत्रों कर छाए हैं मठ जिनके अथवा घासके पूलनिकरि आछादित हैं निवास जिनके, विना वाहे सहजही उगे जे धान्य से उनके आंगनमें सूखे हैं अर मृग भयरहित आंगनमें बैठे जुगाले हैं अर तिनके निवास विषे सूबा मैंना पढे हैं पर तिनके मठनिके समीप अनेक गुलक्यारी लगाय राखी हैं सो तापसनिकी कन्या मिष्ट जलकर पूर्ण जे कलश ते थावल निमें डारें हैं। श्रीरामचन्द्रको आएं जान तापस नाना प्रकारके मिष्ट फल सुगन्ध पुष मिष्ट जल इत्यादिक सामिग्रीनिकर बहुत आदरते पाहुन गति करते भए । मिष्ट वचनका संभाषण कर रहनेको कुटी मृदुपल्लवनी शय्या इत्यादि उपचार करते भए । ते तास सहज ही सबनिका आदर करे हैं इनको महा रूपवान अमृत पुरुष जान बहुत आदर किया, रात्रिको वस कर ये प्रभात उठ चले । तब तापस इनकी लार चले इनके रूपको देखकर पाषाण सी पिघले तो मनुष्यकी कहा बात ? ते तापस सूके पत्रोंके श्राहारी इनके रूपको देख अनुरागी होते भए । जे वृद्धतापम हैं वे इनको कहते भए तुम यहां रहो तो यह सुखका स्थान है अर कदाचित न रहो तो या अटत्रीविगै सावधान रहियो यद्यपि यह वनी जल फल पुष्पादि कर भरी है तथापि विश्वास न करना, नदी बनी नारी ये विश्वास योग्य नाही. सो तुम तो सब बातों में सावधान ही हो फिर राम लक्षमण सीता यहांते आगे चले अनेक तापयिनी इनके देखनेकी अभिलाषाकरि बहुत विह्वल भई संती दूर लग पत्र पुष्प फल चनादिको मिसकर साथ चली आई, कई एक तापसिनी मधुर वचनकारि इनको कहती मई जो तुम हमारे आश्रमविषे क्यों न रहो, तिहारी सब सेवा करेंगी यहांतें तीन कोसपर ऐसी वनी है जहां महा सघन वृक्ष हैं मनुष्यनिका नाम नाही। अनेक सिंह व्याघ्र दृष्ट जीवनिकर भरी, महां इथन अर फल फूलके अथ तापस हू न आवें। डाभकी तीक्ष्ण अणीनिकर जहां संचार नाहीं वन महाभयानक है अर चित्रकूट पर्वत अति ऊंचा दुर्लध्य विस्तीर्ण पड़ा है तुम कहा नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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