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________________ बैस पर्व २७३ एकग्रचिच चले गए । सघन वनमें एक सरोवर के तटपर दोऊ भाई सीता सहित बैठे देखें । समीप धरे हैं धनुवाण जिनके, सीताके साथ ते दोऊ भाई घने दिवसविषै आए र भरत छह दिन में आया, राम को दूरते देख भरत तुरंगते उत्तर पायपियादा जाय रामके पायन परा मूि होय गया तब राम सचेत किया । भरत हाथ जोड़ सिर निवाय रामसू बीनती करता भया । हे नाथ ! राज्यके देयवेकर मेरी चहा विडम्बना करी । तुम सर्व न्याय मार्ग जानन हारे महा प्रवीण मेरे या राज्यते कहा प्रयोजन ? तुम विना जीवनेकर कहा प्रयोजन १ तुम महाउत्तम चेष्टाके धरणहारे मेरे प्राणों के आधार हो । उठो अपने नगर चलें । हे प्रभो ! मोपर कृपा करहु, राज्य तुम करह, राज्य योग तुम ही हो, मोहि सुखी अवस्था देहु | मैं तिहारे सिर पर छत्र फेरता खड़ा रहूंगा और शत्रुघन चमर ढारेगा कर लक्ष्मण मन्त्री पद धारेगा, मेरी माता पश्चातापरूप श्रग्निकर जरे है र तिहारी माता और लक्ष्मणकी माता महाशोक करें हैं, यह बात भरत करे ही हैं और ताही समय शीघ्र रथपर चढी अनेक सामंत सहित महाशोककी भरी केकई आई अर राम लक्ष्मणकू उरसों लगाय बहुत रुदन करती भई । रामने वीर्य बंधाया, तब के कई कहती भई – हे पुत्र ! उठो अयोध्या चलो, राज्य करहु, तुम बिन मेरे सकल पुर वन समान है और तुम महाबुद्धिवान हो, भरतसों सेवा लेवो, हम स्त्रीजन निकृष्ट बुद्धि हैं मेरा अपराध क्षमा करहु तत्र राम कहते भए - हे मात ! तुम तो सब वातनिविषै प्रवीर्ष हो तुम कहा न जानो हो क्षत्रियनिका यही विरुद है जो वचन न चूकें, जो कार्य विचारा ताहि और मांति न करें। हमारे तातने जो वचन कहा सो हमको घर तुमको निवाहना, या वातविषै भरतकी अकीर्ति न होयगी । बहुरि भरतते कहा कि हे भाई ! तुम चिंता मत करहु तु अनाचार ते शंके है सो पिताको आज्ञा अर हमारी आज्ञा पालते अनाचार नाही, ऐसा कहकर वनविष सब राजानिके समीप भरतका श्रीरामने राज्याभिषेक किया और केकईकू प्रणामकर बहुत स्तुति कर बारम्बार संभाषण कर भरतको उरसे लगाय बहुत दिलासाकर मुशकिलते विदा किया । केकई श्रर भरत राम लक्ष्मण सीताके समीप से पाछे नगरको चले, भरत रामकी आज्ञा प्रमाण प्रजा का पिता समान हुआ राज्य करे । जाके राज्यविषै सर्व प्रजाको सुख, कोई अनाचार नाहीं, यद्यपि ऐसा निःकंटक राज्य है तौ भी भरतको क्षणमात्र रग नाहीं, तीनों काल श्रीअरनाथकी वंदना कर मुनिनि मुखते धर्म श्रवण करे, द्युति भट्टारक नामा जे मुनि अनेक मुनि करे हैं सेवा जिनकी, तिनके निकट भरतने यह नियम लिया कि रामके दर्शनमात्रते ही मुनित्रत थारु गा । 'अथानन्तर सुनि कहने भए कि हे भरत ! कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके, ऐसे राम जब लग न आवें तब लग तुम गृहस्थ के व्रत धारहु । जे महात्मा निग्रंथ हैं तिनका आचरण अति विषम है सो पहिले श्रावक्के व्रत पालने तासे यतिका धर्म सुखसों सधे है । जब वृद्ध अवस्था आवेगी तब तप करेंगे, यह वार्ता कहते भए अनेक जड़बुद्धि मरणको प्राप्त भए । महाश्रमोल क ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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