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________________ २६६. प्रद्म-पुराप्य नगर की नारी कहें हैं--हम सबको शिक्षा देनहारी यह सीता महापतिव्रता है, या समान और नारी नाहीं जो महा पतिव्रता होंय सो याकी उपमा पाषै, पवित्रताकों के बस्तार ही देव हैं पर देखो यह लक्ष्मण माताको रोवती छोड़ बड़े भाईके संस जाय है । धन्य यात्री भक्ति, धन्य याकी प्रीति, धन्य याकी क्षमा, धन्य याकी विनयकी अधि कता, या समान और नाहीं श्रर दशरथ भरतको यह कहा आज्ञा करी जो तू राज्य लेड अर राम लक्ष्मणको यह कहा बुद्धि उपजी जो अयोध्याको छांड चले जा कालमें जो होनी होय खो होय है, जः के जैसा कर्म उदय होय तैसी ही होय जो भगवानके ज्ञानमें भासा है सो होय, देवराति दुर्निवार हैं, यह बात बहुत अनुचित होय हैं यहां देवता कहाँ गए। ऐसे लोगनिके सुखते ध्वनि होती भई । सब लोक इनके लार चालवे को उद्यमी भए घरनितें निकसे, नगरी का उत्साह जाता रहा । शोककर पूर्ण जो लोक तिनके अश्रुपातोंकर पृथ्वी सजल हो गई जैसे समुद्र की लहर उठे हैं तैसे लोक उठे । रामके संग चाले, मने किएहू न रहें, रामको भक्तिकर लोक पूजें संभाषण करें सो राम पैंड पैंड में विघ्न मानें इनका भाव चलने का लोक ऐसा चाहें कि लार चलें, रामका विदेश गमन मानों सूर्य देख न सका, सो अस्त होने लगा । अस्त समय सूर्यके प्रकाश ने सर्व दिशा तजी जैसे भरत चक्रवतीने मुक्तिके निमित्त राज्य संपदा तजी हुती । सूर्य के अस्त होते परम रागको धरती मंती सन्ध्या सूर्यके पीछे हो चली, जैसे सीता रामके पीछे चली पर समस्त विज्ञानका विध्वंस करणहारा अंधकार जगतमें व्याप्त भया, मानों रामके गमनसे तिमिह विस्तरा, लोग लार लागे सो रहें नाहीं, तत्र रामने लोकनिके टारिनेको श्रीश्ररनाथ तीर्थ करके चैत्यालय में निवास करना विचारा, संसार के तारणहारे भगवान तिनका भवन सदा शोभायमान: महा सुगंध अष्ट मंगल द्रव्यनिकर मंडित, जाके तीन दरवाजे, ऊंचा तोरण सो राम लक्ष्मण सीता प्रदक्षिणा दे चैत्यालय मांहि पैठे समस्त विधिके वेत्ता दोय दरवाजे तक तो लोक चले गए। तीसरे दरवाजेपर द्वारपालने लोकनिकों रोका जैसे मोहिनीकर्म मिध्यादृष्टियोंको शिवपुर जानेसे रोके हैं, राम लक्ष्य धनुष बाण अर वखतर बाहिर मेल भीतर दर्शनको गए। कमल सान है नेत्र जिनके श्रीचरनाथका प्रतिबिंब रत्नोंके सिंहासनपर विराजमान महाशोभायमान महासौम्य कायोत्सर्ग, श्रीवत्सल क्षणकर देदीप्यमान है उरस्थल जिनका प्रकट हैं समस्त लचय जिनके, संपूर्ण चन्द्रमा समान वदन, फूले कमलसे नेत्र, कथनविषै र चितवनविषै ना ऐसा ६ रूप जिनका, तिनका दर्शनकर भावसहित नमस्कारकर ये दोऊ भाई परम हर्षको प्राप्त भए, कैसे हैं दोऊ ? बुद्धि पराक्रमरूप विनय भरे जिनेन्द्रकी भक्तिविषै तत्पर रात्रिको चैत्यालयके समीप रहे, तां इनको वसे जानकर माता कौशल्यादिक पुत्रनिविषै है वात्सल्य विका सायकर आसू डारतीं बारम्बार उरसों लगावती भई । पुत्रनके दर्शनविषै अतृप्त विकल्परूप हिंडोलवि भूले हैं चित्त जिनका, गौतम स्वामी कहें हैं 1 हे श्रेणिक ! सर्वशुद्धता में मनकी शुद्धता महा प्रशंसा योग्य है । स्त्री पुत्रको भी उरले गाने पर प्रतिको भी उरसे लगावे परन्तु परिणामों का अभिप्राय जुदा जुदा है । दशरथकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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