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________________ तीस पव चन्द्रगतिको प्राप्त भया, सो चन्द्रगति अपनी स्त्री पुष्पवतीको सौंपा, सो नवयौवन में सीताका चित्रपट देख मोहित भया, तब जनकको एक विद्याधर कृत्रिम अश्व होय लेगया, यह करार ठहरा "जो धनुष चढावे सो कन्या परणे, बहुरि जनकको मिथिलापुरी लेग आए घर धनुष लाए, सो धनुष श्रीरामने चढाया र सीता परणी । तब भामण्डल विद्याधरनिके मुखसे यह वार्ता सुन कोकर विमान में बैठ आवे था सो मार्ग में पूर्व भवका नगर देखा तब जातिस्मरण हुआ जो मैं कुण्डलमंडित नामा या विदग्धपुरका राजा अधर्मी हुता । विंगल ब्राह्मणकी स्त्री हरी बहुरि मोहि अनरण्यके सेनापतिने पकडा, देशते काढ दिया, सर्व लूट लिया । सो महापुरुषके आश्रय प्राय मधु मांसका त्याग किया, शुभ परिणामनिते मरणकर जनककी राणी विदेहा के गर्भते उपजा कर वह पिंगल ब्राह्मण जाकी स्त्री य ने हरी सो वनसे काष्ठ लाय स्त्रीरहित शून्यकुटी देख अति विलाप करता भया कि हे कमल नयनी ! तेरी राणी प्रभावती सारिषी माता अर चक्र सारिखे पिता तिनको अर बडी विभूति श्रर बडा परिवार ताहि तज मोसे प्रीतकर विदेश आई । रूखे श्राहार पर फाटे वस्त्र तैंने मेरे अर्थसे आचरे । सुन्दर हैं सर्व अंग जाके, तू मोहि त कहाँ गई ? या भांति वियोगरूप अग्निसे दरबायमान वह पिंगल व पृथ्वीत्रिषै महा दुख सहित भ्रमण कर मुनिराज के उपदेश मुनि होय तप अंगीकार करता भयो, तप के प्रभावते देव भया सो मनमें चितवता भया कि वह मेरी कांता सम्यक्त्वरहित हुती सो तिर्य गतिको गई अथवा मायाचाररहित सरल परिणाम हुती सो मनुष्यणी भई अथवा समाधि मरणकर जिनराजकों उरमें घर देवगतिको प्राप्त भई । पिंगल नामा विप्र देव या भांति विलाप करि खेदखि भया ढूढ़ता फिरे । कोऊ कारण न जानके अवधि जाड निश्चय किया कि ताको तो कुंडल मंडित हर लेगया हुता सो कुंडलमंडित को राजा अनरण्यका सेनापति बालचन्द्र बांधकर अनरण्यके पास लेगया र सर्वस्व लूट लिया बहुरि राजा अनरण्यने याको राज्यसे विमुख कर सर्व देश में अपना अमल कर याको छोड़ दिया सो भ्रमण करता महादुखी मुनिका दर्शन कर मधु मांसका त्याग करता भया सो प्राण त्यागकर राजा जनककी स्त्रीके गर्भ में आया भर वह मेरी स्त्री चित्तोत्सवा सो हू राणीके गर्भ में आई सो वह तो स्त्रीकी जाति पराधीन बाका तो कुछ अपराध नाहीं अर वह पापी कुंडलमंडितका जीव या राणी के गर्भ में है सो गर्भ में दुख दूं तो राणी दुख पावै, सो उससे तो मेरा बैर नाहीं, ऐसी वह देव विचारकर राणी विदेहा के गर्भ में कुंडल मंडितका जीव है उसपर हाथ मसलता निरन्तर गर्भ की चौकसी देवे सो जब बालकका जन्म भया तब बालकको हरा । श्रर मनमें विचारी कि याको शिलापर पटक मारू' अथवा मसल डारू। बहुरि विचारी कि धिक्कार है मोहि जो पाप चिंता, बालहत्या समान पाप नाहीं, तब देवने बालकको कुंडल पहराय लघुवरण नामा विद्या लगाय आकाश से द्वारा सो चन्द्रगति केन्या अर राखी पुष्पवतीको सौंपा सो भामंडल जातिस्मरण होय सर्व चन्द्रगतिको कहा जो सीता मेरी बहिन है पर राखी विदेहा मेरी माता है पर पुष्पवती 2 , ३३ Jain Education International २५७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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