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________________ goatnai पर्व PRO सीखनेको याके निकट राखे । ते बाणविद्याविषै प्रतिप्रवीण भए जैसे निर्मल सरोवर में चन्द्रमा की कांति विस्तारको प्राप्त होय तैसे इनमें वाणविद्या विस्तारको प्राप्त भई और भी अनेक विद्या गुरुसंयोगतें तिनको सिद्ध भई जैसे किसी ठौर रत्न मिले होवें अर ढकनेसे ढके होवें सो ढकना उघाड़े प्रकट होंय तैसे सर्व विद्या प्रकट भई । तब राजा अपने पुत्रोंकी सर्व शास्त्रविषे प्रति प्रवीणता देख अर पुत्रोंका दिनय उदार चेष्टा अवलोकन कर अतिप्रसन्न भया । इनके सर्वविद्यावों गुरुवोंकी बहुत सन्मानता करी । राजा दशरथ गुणों के समूह से युक्त, महाज्ञानीने जो उनकी हुत अधिक सम्पदा दीनी, दानविषै विख्यात है कीर्ति जाकी । केतेक जीव शास्त्रज्ञान को पाकर परम उत्कृष्टताको प्राप्त होय हैं और कैथक जैसे के तैसे ही रहे हैं अर कैयक fare कर्म योग मदकरि आधे होय हैं जैसे सूर्यको किरण स्फटिकगिरिके तटविष अति प्रकाशको थर है, और स्थानकविषै यथास्थित प्रकाशको घरे है अर उल्लुवों के समूहमें अतितिमिररूप होय परणवै ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत प्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै चारि भाईनिके जन्मका कथन वर्णन करनेवाला पच्चासनां पर्व पूर्ण भया ।। २५ ।। ० अथानन्तर गीतम स्वामी राजा श्रेणिकतै कहै हैं - हे श्रेणिक ! छात्र भामण्डल र Satara कथन सुनो। राजा जनककी स्त्री विदेहा ताहि गर्भ रहा सो एक देवके यह अभिलाषा हुई कि जो या बालक होय सो मैं ले जाऊं । तब श्रेणिकने पूछा- हे नाथ ! वा देवके ऐसी अभिलाषा का उपजी सो मैं सुना चाहूं हूं तब गौतम स्वामी कहते भए --हे राजन्, चक्रपुर नामा एक नगर है तहां चक्रज नामा राजा ताके राणी मनस्विनी तिनके पुत्री चित्तोरसवा सो कुबारी चटशाला में पढ़े और राजाका पुरोहित धूम्रकेश ताके स्वादा नामा स्त्री ताका पुत्र पिंगल सो भी चटशाला में गर्दै । सो विद्योत्सवाका और पिंगलका चित्त मिल गया सो इनको विद्याकी सिद्धि न भई, जिनका मन कामवाणोंसे बेषा जाय तिनको विद्या र धर्मकी प्राप्ति न होय है । प्रथम स्त्री पुरुषका संसर्ग होय बहुरि प्रीति उपजै, प्रीति से परस्पर अनुराग बढे, बहुरि विश्वास उपजै ताकरि विकार उपजै, जैसे हिंसादिक पंच पापोंसे अशुभ कर्म बन्थें वैसे स्त्री संगत काम उपजै है || अथानन्तर वह पापी पिंगल चित्तोत्सवाको हर ले गया जैसे कीर्तिको अपयश हर ले जाय, जब वह दूर देशनिविषै हर लेगया तब सर्व कुटुम्बके लोकोंने जानी, अपने प्रमादके दोषकर ताने वह हरी है जैसे अज्ञान सुगतिको हरे तैसे वह पिंगल कन्याको चुरा ले गया परन्तु धनरहित शोभै नाहीं जैसे लोभी धर्मवति तृष्णासे न सोहै सो यह विदग्ध नगर में गया वहां अन्य राजावोंकी गम्यता नहीं सो निर्धन नगर के बाहिर कुटी बनाय कर रहा ता कुटीके किवाड़ नाहीं अर यह ज्ञान विज्ञानरहित तृण काष्ठादिकका विक्रयकर उदर भरे दारिद्रके सागर में मग्न सो स्त्रीका और आपका उदर महा कठिनता से भरे । तहां राजा प्रकाशसिंह भर राबी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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