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________________ बाईसबा पत्र अथानन्तर वर्षा ऋतु गई शरद ऋतु भाई सो मानों रात्रि पूर्ण भई प्रभात भया, कैसा है प्रमात ? जगतके प्रकाश करने में प्रवीण है। शरदके समय आकाशमें वादल श्वेत प्रगट भए भर सूर्य मेषपटलरहित कांतिसे प्रकाशमान भया जैसे उत्सर्पणी कालका जो दुःखमा काल ताके अन्तमें दुखमा सुखमाके आदि ही श्रीजिनेन्द्रदेव प्रकट होंय अर चन्द्रमा रात्रिविष ताराओंके समूहके मध्य शोभित भया जैसे सरोवरके मध्य तरुणा राजहंस शोभ र रात्रिमें चंद्रमाकी चांदनी कर पृथ्वी उज्ज्वल भई सो मानों क्षीर सागर ही पृथ्वीमें विस्तर रहा है अर नदी निर्मल भई कुरिच सारम चकवा आदि पक्षी सुन्दर शब्द करने लगे अर सरोवरमें कमल फूले जिनपर भ्रमर गुंजार करे हैं अर उडे हैं सो मानों भव्य जीवोंने मिथ्यात्व परिणाम तजे हैं सो उड़ते फिरे हैं (भावार्थ) मिथ्यात्वका स्वरूप श्याम अर भ्रमरका भी स्वरूप श्याम । अनेक प्रकार सुगन्धका है प्रचार जहां ऐसे जे ऊंचे महल तिनके निवासमें रात्रीके समय लोक निज प्रियावोंसहित क्रीडा करे हैं शरद ऋतुमें मनुष्योंके समूह महाउत्सव कर प्रवाते हैं, सन्मान किया हैं मित्र बान्धवोंका जहां पर जो स्त्री पीहर गई तिनका सासरे आगमन होय है, कार्तिक सुदी पूर्णमासीके व्यतीत भए पीछे तपोवन जे मुनि ते तीर्थों में विहार करते भए तब ये पिता पुत्र कीर्तिधर सुकोशल मुनि समाप्त भया है नियम जिनका, शास्त्रोक्त ईर्या समितिसहित पारणाके निमित्त नगरकी ओर विहार करते भए अर वह सहदेवी सुकौशलकी माता मरकर नाहरी भई हुती सी पापिनी महाक्रोधकी भरी लोहकर लाल है केशोंके समूह जाके, विकराल है बदन जाका. तीक्ष्ण है दांत जाके. कषाय रूप पीत हैं नेत्र जाके सिरपर धरी है पूछ जाने, नखों कर विदारे हैं अनेक जीव जाने भर किए हैं भयंकर शब्द जाने, मानों मरी ही शरीर धर आई है, लहलह ट करे है लाल जीभ का अग्रभाग जाका, मध्यान्हक सूर्य समान आतापकारी सो पापिनी सुकौशल स्वामीको देखकर महावेगसे उछल कर आई, ताहि आवती देख वे दोनों मुनि सुन्दर हैं चरित्र जिनके, सर्व बालमरहित कायोत्सर्ग धर विष्ठे सो पापिनी सिंहिनी सुकौशल स्वामीका शरीर नखों कर विदारती भई । मौतमस्वामी राजा श्रेणिकतें कहे हैं-हे राजन् ! देख संसारका चरित्र ? जहां मावा पुत्रके शरीरके भक्षणका उद्यम कर है या उपरान्त और कष्ट कहा ? जन्मान्तरके स्नेही बांधव कर्मके उदयसे बैरी होय परिणमें तब सुमेरुसे भी अधिक स्थिर सुकौशनमुनि शुक्ल ध्यानके धरणहारे विनको केवलज्ञान उपजा, अन्तकृत् केवली भए तब इन्द्रादिक देवोंने आय इनके देहकी कल्पस्वादिके पुष्पोंसे अर्चा करी, चतुरनिकायके सब ही देव पाए अर नाहरीको कीर्तिवरमुनि धर्मोपदेश वचनोंसे सम्बोधते भए-हे पापिनी! तू सुकौशलकी माता सहदेवी हुती अर पुत्रसे तेरा अधिक स्नेह हुता ताका शरीर तैंने नखोंसे विदारा, तब बह जाति-स्मरण होय श्रावकके अवघर सन्यास धारणकर शरीर तज स्वर्गलोकमें गई बहुरि कीर्तिधर मुनिको भी केवलज्ञान उपजा तब इनके केवलकी सुर अमुर पूजाकर अपने अपने स्थानको गये। यह सुफौशल मुनिका माहास्य जो कोई मनुष्य पढे सुने सो सर्व उपसर्ग रहित होय सुखसे चिरकाल जीवै॥ अथानन्तर सुकौशलकी राखी विचित्रमाला ताके सम्पूर्ख समय पर सुन्दर लवणकारि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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